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________________ [ १७ ख --- ६ देवमन्दिरों को जलाकर भस्म कर डाला, तदनन्तर कन्नौज को लूटा और फिर चन्देलों के राज्य पर आक्रमण किये । न जाने कैसे महमूद की विध्वंसलीला से मथुरा के कंकाली एवं चौरासी पर स्थित जैन मन्दिर और मूत्तियाँ बच गई। या तो ये स्थान उसके मार्ग से हटकर पड़ते थे, अथवा इतने जीर्ण-शीर्ण एवं धन सम्पत्ति विहीन थे कि उनकी ओर लुटेरों का ध्यान ही नहीं गया । महमूद के उत्तराधिकारी के सिपहसालार मसऊद ने भी १०३३ ई० में प्रायः समस्त उत्तर प्रदेश को रौंद डाला था, ऐसी किंवदन्तियां हैं, और यह भी कि अन्ततः बहराइच के युद्ध में आवस्ती के जैन नरेश सुहिलदेव ने उसे पराजित करके ससैन्य मार डाला था। उसके बाद भी दो एक बार गजनी के सुल्तानों के सेनानियों ने इस प्रदेश पर लुटेरे आक्रमण किये । धन, जन, मंदिरों और मूर्तियों की बहुत कुछ क्षति होने पर भी इन आक्रमणों का प्रदेश पर विशेष या स्थायी कोई प्रभाव नहीं हुआ । १२वीं शती के अंतिम दशक में गज़नी के ही सुलतान मुहम्मद गोरी ने भारी सेना लेकर प्रदेश पर आक्रमण किये, तलावड़ी के युद्ध (११९२ ई०) में दिल्लीश्वर पृथ्वीराज और उसके राज्य को समाप्त किया, तदनन्तर चन्द्रवाद के युद्ध में कन्नौज नरेश जयचन्द और उसके राज्य का अन्त किया। दो-तीन वर्ष के भीतर ही गोरी और उसके गुलाम एवं सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने मेरठ से वाराणसी पर्यन्त प्रायः पूरे उत्तर प्रदेश पर अपना फौजी शासन स्थापित कर दिया। आगे के लगभग ३०० वर्ष पर्यन्त क्रमशः गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद और लोदी वंशों के मुसल्मान सुल्तानों ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाकर प्रायः पूरे उत्तर प्रदेश पर शासन किया। वस्तुतः गंगायमुना के दोआबे का यह धन-जनपूर्ण प्रदेश ही दिल्ली के सुलतानों की शक्ति एवं समृद्धि का प्रधान स्रोत था, और इसे ही वे हिन्दुस्तान कहते थे। प्रदेश की देशी राज्य सत्ताएँ, दो-एक छोटे-मोटे अपवादों को छोड़कर सब शनैः शनैः समाप्त कर दी गई। जिन राजधानियों, नगरों, दुर्गों आदि पर सुलतानों ने अधिकार किया उन्हें तो जी भर के लूटा और ध्वस्त किया। मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ना, मंदिरों को मस्जिदों में पंडितों और धर्मात्माओं को काफिर कह कर उनका अपमान करना, तास देना, हत्या काल के 'मुसलमान शासक और इनके साधर्मी अनुचर सबाब का काम समझते थे । उनके प्रदेशों में स्वभावतः भारतीय धर्मों और उनके अनुयायियों की शोचनीय स्थिति थी । प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग या समुदाय के लिए अपने जान, माल, इज्जत, धर्म और संस्कृति की रक्षा की समस्या सतत् और सर्वोपरि थी। और यदि वे हिन्दू, जैन आदि तथा उनका धर्म और संस्कृति जैसे-तैसे बचे रहे तो इसीलिए कि उन्हें सर्वथा समाप्त कर देना अथवा मुसलमान बना डालना उन शासकों के लिए भी अशक्यानुष्ठान था । वैसा करना उनके राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक हितों में भी नहीं था। इसके अतिरिक्त बाहरी दबाव एवं अरक्षाभय की प्रतिक्रिया भीतरी संगठन एवं आत्मरक्षा की प्रवृत्ति को बल देती है । इन्हीं कारणों से उस काल में प्रदेश में जैनीजन, उनका धर्म और संस्कृति जीवित रह सके। संख्या अवश्य घटती गई और व्यापारप्रधान वैश्य वर्ग में सीमित होती गई। उत्तरमध्यकाल में प्रदेश के अनेक जैन समजातीय एवं प्रायः समान आचार-विचार वाले वैष्णवों में परिवर्तित हुए । दिल्ली के सुलतानों में कोई-कोई अपेक्षाकृत उदार और विभिन्न धर्मो के विद्वानों का आदर करने वाले भी हुए अलाउद्दीन खिलजी (१२९६ १३१६ ई०) के शासनकाल में दिल्ली का नगर सेठ पूर्णचन्द्र नामक अग्रवाल जैन था। बादशाह के संकेत पर उसने दक्षिणापथ से दिगम्बराचार्य माधवसेन से दिल्ली पधारने की प्रार्थना की। आचार्य आये और उन्होंने दिल्ली में काष्ठासंघ का पट्ट स्थापित किया, जो गत शताब्दी के अन्त तक चलता रहा। उत्तर प्रदेश के अग्रवाल जैनों में मुख्यतया इसी पट्ट के भट्टारकों की आम्नाय चलती रही। कुछ ही वर्षों बाद आचार्य प्रभाचन्द्र ने दिल्ली में नन्दिसंघ का पट्ट स्थापित किया, सेनसंघ की भी गद्दी स्थापित हुई और श्वेताम्बर पट्ट भी स्थापित हुआ। सुलतान मुहम्मद तुगलक ने दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्र का और श्वेताम्बराचार्य जिनप्रभसूरि Jain Education International परिवर्तित करना, साधु-संतों, करने में भी न चूकना उस द्वारा अधिकृत एवं शासित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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