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________________ मथरा संग्रहालय की कुषाणकालीन जैन मतियाँ -श्री रमेशचन्द्र शर्मा, निदेशक, राजकीय संग्रहालय, मथुरा जैन धर्म का मथुरा से धनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । प्राचीन अंग-सूत्री में मथुरा का उल्लेख हुआ है । प्रज्ञापना सूत्र में २५ आर्य देशों में शूरसेन व मथरा का वर्णन है। पांचवीं शती के वसुदेव हिन्डी प्राकृत कथा-ग्रन्थ के श्यामा विजय लम्भक में कंस का आख्यान है।' निशीथ और ठाणांग में मथुरा की गणना भारत की १० प्रमुख राजधानियों में हई है । इसे अरहंत प्रतिष्ठित चिरकाल प्रतिष्ठित आदि उपाधियों से सम्मानित किया है। महापुराण के प्रणेता आचार्य जिनसेन के अनुसार भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने जिन ५२ राज्यों की सृष्टि की थी उनमें शूरसेन भी था जिसकी राजधानी मथुरा थी। जैन हरिवंश पुराण में भी शूरसेन राज्य को भारत के १८ महाराज्यों में बताया है। सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ जी के जीवन की कोई प्रसिद्ध घटना यहाँ अवश्य घटित प्रतीत होती है क्योंकि उसकी स्मति में एक प्रचीन स्तूप का निर्माण यहाँ हुआ था। चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ की पूजा में भी एक ए जाने की किंवदन्ती है। जैन परम्परा के अनुसार अरिष्टनेमि (२२वें तीर्थंकर) श्रीकृष्ण के ताऊ समुद्र विजय के पुत्र थे। इनका राज्य शौरिपुर (बटेश्वर) जिला आगरा में था। कला में भी इस परम्परा...... । युग में ही मिल चुकी थी क्योंकि बलराम और श्रीकृष्ण के साथ नेमिनाथ की प्रतिमाएं मथुरा क्षेत्र में कुषाण युग से मध्य काल तक की मिलती हैं। सर्पफणों से आच्छादित अनेक प्रतिमाओं की उपलब्धि २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी का भी ब्रजभूमि से सम्बन्ध स्थापित करती है। अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने भी व्रज में विहार किया और उनका समवसरण भी यहाँ आया। उस समय यहाँ का राजा उदितोदय अथवा भीदाम था जिसने भगवान महावीर से दीक्षा भी ली। आवश्यक-णि के अनुसार कंवल और शंवल नामक दो राजकुमार उनकी परिचर्या करते थे। नगर के प्रसिद्ध सेठ अर्हदास ने भी महावीर जी से दीक्षा ली। जैन धर्म में मथुरा को आदर का स्थान मिलने का अन्य विशेष कारण अन्तिम केवली जम्बू स्वामि के कैवल्य लाभ के पश्चात मथुरा में अपने दिव्य उपदेशों से ब्रजवासियों को तृप्त करने तथा अन्ततः वहां निर्वाण लाभ करने की घटना है। उनके तप से पवित्र मथुरा की सिद्ध क्षेत्र के रूप में ख्याति हुई और आज भी नगर के पास चौरासी का जैन मन्दिर जम्बूस्वामी सिद्धक्षेत्र के नाम से विख्यात है। कवि राजमल्लकृत जम्बूस्वामी चरित में इसका विस्तृत वर्णन है । इस ग्रन्थ में अन्य मुनियों और सिद्धों को भी ब्रज क्षेत्र से सम्बन्धित किया है। आवश्यक चणि से ज्ञात होता है कि आर्यरक्षित ने मथुरा में भूत-गुहा नामक चैत्य में विहार किया था और आर्य मंग देह त्याग के अनंतर निद्धवण यक्ष बने थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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