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________________ राज्य संग्रहालय लखनऊ का नीलाञ्जना-पट उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों में, विशेषकर मथुरा के कंकाली टीला क्षेत्र से प्राचीन जैन कलाकृतियों के अनुपम एवं विविध दृष्टियों से महत्वपूर्ण नूमने प्राप्त हुए हैं। तीर्थदूरों, देवी देवताओं, धार्मिक प्रतीकों, लोक जीवन सूचक एवं प्राकृतिक दृश्यों के प्रस्तरांकनों के अतिरिक्त कई जैन पौराणिक दृश्यों के महत्वपूर्ण अंकन भी प्राप्त हुए हैं। इनमें से विशेष उल्लेखनीय एक खंडित प्रस्तर फलक (जे ३५४) है जो बाद में एक वेदिका के छोर वाले स्तम्भ के रूप में प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है जैसा कि उसके सिरे पर पटबल बने खाँचे से विदित होता है । दाँयें छोर के भाग में मंडप के नीचे एक नर्तकी नृत्य कर रही है और वादक वृन्द मृदङ्गादि वाद्य बजा रहे हैं । मंडप के बाहर सबसे आगे एक राजपुरुष बैठा है जिसके पीछे तथा बगल में कई अन्य व्यक्ति बैठे अथवा खड़े हैं। बांये छोर पर ऊपर एक व्यक्ति हाथ जोड़े बड़ा है और उसके आगे-पीछे कमण्डलधारी एक दिगम्बर मुनि उक्त सभा मुड़कर जाता हुआ दिखलाया गया है। मुझे लगता था कि इस कलाकृति का लुप्त भाग मिल जाय तो दृश्य में अधिक पूर्णता आ जाय, मैं उसकी खोज में लगा रहा और सौभाग्य से अन्ततः उस खोये हुए टुकड़े (जे ६०९) को खोज निकालने में मैं सफल हुआ। इस पर ध्यानस्थ बैठे हुए दो दिगम्बर मुनियों का अंकन है। इनके पीछे दाहिनी ओर एक चवरी वाहक खड़ा है। इससे कुछ आगे एक कायोत्सर्ग नग्नमुनि का ऊपरी भाग दिखलाई देता है। दायीं ओर के सिरे के निकट एक अर्थफालक (भुजा पर खण्डवत्र लटकाए हुए साधु) की जैसी आकृति बनी प्रतीत होती है । मुख्य आकृतियां ऊँची पीठिकाओं पर आसीन हैं और मंडित केश हैं। 1 इसमें कोई संदेह नहीं है कि कलाकृति जैन धर्म से संबंधित है और किसी जैन पौराणिक दृश्य का अंकन है। उक्त नृत्य दृश्य को पहले स्व० डा० वासुदेवशरण अग्रवाल साहब ने भगवान महावीर के जन्मोत्सव का दृश्यांकन समझा था ( जैन एन्टीक्वेरी, X पृ० १-५) किन्तु डा० ज्योति प्रसाद जैन ने उसे प्रथम तीर्थंङ्कर ऋषभदेव की राजसभा में नीलाञ्जना अप्सरा के नृत्य का दृश्य अनुमान किया था और अपना सुझाव डा० अग्रवाल जी पर भी प्रायः प्रकट कर दिया था, बाद में डा० पू० पी० शाह ने भी नीलाञ्जना नृत्य (स्टडीज इन जैन आर्ट, पृ० ११, ( कु० नो० ४) का अंकन ही मान्य किया है। मुझे भी यह मान्यता युक्तिसंगत प्रतीत होती है। इस प्रकार इस कलाकृति के दोनों खण्डों को जोड़ने से जो दृश्य बनता है उसे पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है -- (१) धुर दाहने छोर पर जहाँ अब सिर्फ आकृति दीख पड़ती है सम्भवतया महाराज ऋषभदेव के सम्मुख असली नीलाञ्जना का अंकन था। (२) अब जो नृत्य दृश्य उपलब्ध है वह उस समय का प्रतीत होता है जब असली नीलाब्जना के विलय हो जाने पर इन्द्र ने उसके स्थान पर वैसी ही दूसरी आकृति की रचना कर दी थी, जिसे ऋषभदेव ने लक्ष्य कर लिया था और वह घटना उनके वैराग्य में निमित्त हुई । (३) ऋषभदेव वैराग्य और लोकान्तिक देवों द्वारा उनकी स्तुति करना । (४) ऋषभदेव द्वारा दीक्षा लेना और तपस्या करना । (५) ऋषभ को केवल ज्ञान की प्राप्ति । ऋषभ वैराग्य की उक्त घटना का विस्तृत एवं रोचक वर्णन आचार्य जिनसेन कृत आदि पुराण ( पर्व - १७) में प्राप्त होता है। महाराज ऋषभदेव एकदा जब अयोध्या में अपनी राजसभा में विराजमान थे तो इन्द्र ने उन्हें संसार से विरक्त करने के लिए इस घटना की योजना की थी, जिससे वह तपः साधना द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त करके तीर्थङ्कर रूप में लोक कल्याण करें । Jain Education International For Private & Personal Use Only - श्री वीरेन्द्रनाथ श्रीवास्तव www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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