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भगवान महावीर से सम्बन्धित स्मृति ग्रन्थ स्वयं एक बड़ी चीज है । मेरी दृष्टि में भगवान महावीर का संदेश हमारी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है ।
मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है हमारे देश के जन जीवन से सम्बन्धित तथाकथित जन्म-जाति संस्कारों के सम्बन्ध में इस देश की जनता प्रायः जीव मात्र के प्रति दया का बर्ताव करती है । हिंसा, घणा, ईष्या, द्व ेष एवं अन्य प्रकार की कुत्सित भावनाओं के प्रति सहिष्णु भी नहीं है । इन दुष्ट प्रवृत्तियों को न जीवन का अंग मानकर चलती है और न उनको जीवन के लिए आवश्यक एवं स्वाभाविक दुर्गुणों के रूप में स्वीकर करना चाहती है । कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे मानो सद्गुणों के प्रति मानव मात्र यात्रा में हम लोगों से कुछ आगे बढ़े हुए हैं। धीरे-धीरे मेरा यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है कि तथाकथित मानसिक संस्कार भी जीवन की ऐतिहासिक भित्ति पर आधारित हैं। हमारे इतिहास में एक और बड़ी विचित्र और विस्मय में डाल देने वाली प्रवृत्ति सामने आती है। हमने कभी भी अपने देश के बाहर के किसी भी देश पर आक्रमण नहीं किया। हमारे यहां महानतम सम्राट हुए । दिग्विजयी नृपों की शृंखला हमारे इतिहास में पौराणिक गाथा के रूप में चित्रित है। लेकिन किसी के सम्बन्ध में यह नहीं कहा गया कि हमारे अमुक नृप ने अपनी दिग्विजय की आकांक्षा से प्रेरित होकर आक्रमक के रूप में किसी दूसरे देश पर कभी आक्रमण किया हो । अपने सम्बन्ध में चर्चा करते समय प्रायः हम सभी लोग अपने प्रति अपेक्षाकृत अपने को अच्छा समझकर चलते हैं और मानव स्वभाव है कि वह अपने को औरों से अच्छा समझता है। लेकिन फिर भी कुछ मूलभूत प्रवृतियां जन जीवन में स्थान-स्थान पर देखने को मिलती हैं। कदाचित यह दंभ की बात हो, कुछ लोगों की दृष्टि में परन्तु इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि हम लोग प्रायः सभी धर्मो के प्रति सहिष्णु हैं। हमारे धर्म ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर इस सहिष्णुता का पाठ अंकित है। भगवान महावीर का स्याद्वाद और गीता की शाश्वत वाणी है ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् मम वर्त्मानुवर्तन्त मनुष्याः पार्थ सर्वशः " अर्थात् 'जो जिस प्रकार से मेरी पूजा करते हैं उनको मैं उसी प्रकार से स्वीकर कर लेता हूँ। सभी मार्गों से अंत में मनुष्य मुझ में ही आकर मिल जाता है बहुत कुछ एक सी बातें हैं। भगवान महावीर ने स्यादवाद के सिद्धान्त के अनुसार यह स्वीकार
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किया कि उनका मत ठीक हो सकता है और दूसरे सिद्धान्तों में कहीं भी कोई अंतर नहीं मालूम होता है। भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध, कृष्ण और राम के संयुक्त प्रयासों का ही फल है।
व्यक्ति का मत भी ठीक हो सकता है। मुझे दोनों ऐसा प्रतीत होता है कि यह हमारा शाश्वत सिद्धान्त
कुछ कारण होने चाहिये कि आखिर हमारे ही देश में महात्मा गांधी का जन्म क्यों किस प्रकार से अहिंसा के सिद्धान्त का व्यवहारिक रूप संसार को पुनः देने की चेष्टा की । महावीर, बुद्ध, कृष्ण और राम के द्वारा निर्मित जीवन के सक्षम प्रतीक ही हैं।
मथुरा : १७-१०-१९७५
इन्हीं सब महान संतों की वाणी ने हमारे जीवन को एक सांस्कृतिक रूप प्रदान किया है और उसी के द्वारा हमारा जीवन सम्पूर्ण रूप से विकसित और पल्लवित हो पाया है। हम में जो भी यह क्षमता है, जैसा कि अभी कुछ दिन पूर्व इंदिरा जी ने कहा था, कि हम संसार को कुछ दे सकें, और वह है आज के वैज्ञानिक युग में अध्यात्मिकता का नया सन्देश इस देन के लिये हम सदा सदा ही भगवान महावीर के भी ऋणी रहेंगे ।
मेरा शत् शत् अभिनन्दन भगवान महावीर के चरणों में ।
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और उन्होंने वह भी भगवान
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हुआ
- लक्ष्मी रमण आचार्य
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