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संपिक्खए अपगमप्पएण स्वयं को जानो, स्वयं को पहचानो । अत्ताणमेव समभिजाणाहि आत्मा को ही भले प्रकार जानो । जो एगं जाणई सो सव्वं जाणई
जो एक (आत्मा) को जानता है, वह सबको जानना है ।
न दंसणिस्स नाणं, नाणेणविणा हुंति न चरणगुणाः । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नात्थितमोक्खस्स निव्वाणं ॥
जहाँ श्रद्धान ( दर्शन ) नहीं वहाँ ज्ञान नहीं होता, बिना ज्ञान के चारित्रगुण प्रकट नहीं होता, बिना चारित्र गुण के मोक्ष की सिद्धि नहीं होती, और अमुक्त का निर्वाण नहीं होता ।
सम्माइट्ठी सावयधम्मं जिणदेवदेसिगं कुणदि । विवरीयं कुतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो ॥
सम्यग्दृष्टि श्रावक जिनोपदेशित धर्म का पालन करता है। जो उसके विपरीत करता है, उसे मिथ्यादृष्टि जानो ।
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दाण- पूजा-सीलोपवास चउव्विहो सावयधम्मो
दानशीलता, गुणीजनों का पूजा सत्कार, शील-सदाचरण और उपवास आदि तप श्रावक का चतुर्विध धर्म है ।
जूयं मज्जां मंसं वेसा, पारद्धि-चोर-परयारं । दुग्गइगमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ||
द्यूत (जुआ), शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री ( या परपुरुष) का सेवन दुर्गति के कारण हैं, इसलिए श्रावक इन सात पाप व्यसनों को छोड़ देता है ।
पंचेणुव्वयाई गुणव्वयाई हवंति तह तिष्णि ।
सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥
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पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का पालन करना ही गृहस्थ का संयमाचरण है ।
एहु धम्मु जो आयरइ गंभणु सुदुवि कोइ । fi सावयहं अण्णु कि सिरिमणि होइ ॥
सो साव,
इस धर्म का पालन करने वाला चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र, वह ही श्रावक है, अन्यथा श्रावक के सिर पर क्या कोई मणि जड़ी रहती है ।
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