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जे सहस्सं सहस्साण संगामे एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एष से
दुज्जये जिणे । परमो जओ ॥
जो वीर दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, यदि उसके स्थान में वह एक अपनी आत्मा को जीतले तो उसकी वह विजय सर्वश्रेष्ठ विजय होगी ।
अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥
अपनी आत्मा के साथ युद्ध करो। बाहरी शत्रु के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? आत्मा द्वारा आत्मा को जीतने वाला - आत्मजयी ही पूर्ण सुखी होता है ।
पंचिन्दियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं ॥
पाँचों इन्द्रियों को, क्रोध-मान- माया लोभ को, और सबसे अधिक दुर्जय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए। एक आत्मा के जीतने पर सबकुछ जीत लिया जाता है 1
न तं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करेइ अप्पणिया दुरप्पा | सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं ॥
गाणं णरस्स सारं
गला काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना कि 'दुराचरण आसक्त अपनी आत्मा करती है । मनुष्य के लिए ज्ञान ही सार है, किन्तु ज्ञान से भी अधिक सार पदार्थ सम्यक्त्व - सच्ची आत्मश्रद्धा है ।
अहपुण अप्पाणिच्छदि धम्माइ करेदि निरवसेसाइ । तहवि ण पावदि सिद्धि संसारच्छा पुणो भणिदो ॥
जो व्यक्ति आत्मा को नहीं पहचानता, वह यद्यपि समस्त धार्मिक क्रियाएँ करता है, तथापि उसे सिद्धि नहीं मिलती और वह ससारी ही कहलाता है ।
पाण त अन्तओ पासइ सन्दलोए । महन्तं बुद्धो पसत्तेसु परिव्वज्जा |
मोहनिद्रा में मग्न मनुष्यों के बीच रहते हुए जो विश्व के समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है, संसारी जीवन को अशाश्वत ( क्षणभंगुर ) समझता है, और अप्रमादी होकर संयम में रत रहता है, वहीं मुक्ति का सच्चा अधिकारी है ।
उहरे य पाणे बुड्ढे उव्वेहई लोगमिणं
लाभालाभे सुहे- दुक्खे जीविए मरणे वहा । समो निंदा पसंसासु तहा माणा अवमाणवो ॥
लाभ-हानि, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, प्रशंसा-निंदा, मान-अपमान में समत्व भाव रखना चाहिए ।
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*NAMNA
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