SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ ] की भिन्न समस्याएँ हैं, भिन्न मापदण्ड हैं, आचार-विचार में भिन्नता है, फिर भगवान महावीर के उन प्राचीनतम सिद्धान्तों का आज के युग में क्या कुछ महत्व हो सकता है ? वे हमें किस भाँति समस्याओं के दलदल से बाहर निकाल सकते हैं ? समस्त मानव महावीर बने यहाँ विचारणीय यह है कि मानव का बाह्य आवरण बदल जाने से मानव नहीं बदल जाता। मानव अन्ततः मानव ही रहता है। ठीक उसी प्रकार समस्याओं के बाहरी कलेवर बदल जाने से समस्याएँ बदल जाती हैं, ऐसा नहीं समझा जाता। भले ही समस्याओं को सोचने, समझने और जीवन में देखने की दृष्टि में परिवर्तन आ जाये, किन्तु मानव की समस्याएं यथावत् बनी हुई हैं। उसके रहन-सहन, आचार-विचार के तौर-तरीके चाहे बदल गये हैं, किन्तु मानव की मौलिक समस्याएं-भोजन, वस्त्र, आवास एवं शिक्षा-जिस प्रकार प्राचीन काल में थी आधुनिक काल में भी वैसी ही हैं। अलबत्ता, क्रमशः बढ़ती हुई मॅहगाई, औद्योगिक एवं तकनीकी क्षेत्रों में राष्ट्रों की बेतहाशा भागती हुई दौड़ अवश्य बढ़ गई है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज की कशमकश स्थिति में भगवान महावीर की वाणी का मूल्य और भी बढ़ गया है। तब एक महावीर थे, आज समस्त मानवों को महावीर बनने का समय आ गया है। इसी में लोक-कल्याण है, अन्य में नहीं। भगवान महावीर के लोक-कल्याणार्थ जो उपदेश थे उनमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह इन पंच-महाव्रतों के जीवन व्यवहार में सक्रिय परिपालन पर मुख्य रूप से बल देना होगा। और इन्हीं पांच व्रतों के सिद्धान्तों में, चाहे समरसतावाद हो, समतावाद हो, सर्वोदयवाद हो अथवा आधुनिक समाजवाद हो-सबका स्वतः समावेश हो जाता है। यहाँ हम भगवान की वाणी का इन पंचव्रतों के परिप्रेक्ष्य में युगसापेक्ष विवेचन करेंगे। महावीर-वाणी : आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ध्वंसमूलक विकृतियों का उपचार १. अहिंसा-अहिंसा के विषय में भगवान महावीर का कथन है किसी भी जीव को त्रास (कष्ट) नहीं देना चाहिये। सभी सचेतन प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, सुख सबको ही अच्छा लगता है और दुःख बुरा । वध सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय । अतः किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये ।' परपीड़ा में लगे हुए जीव एक तो अन्धकार की ओर जाते हैं, और दूसरे, इस प्रकार वैर की परम्परा चल पड़ती है। वैर-वृत्ति वाला व्यक्ति सदैव वैर ही करता रहता है। वह एक के बाद एक किये जाने वाले वैर को बढ़ाते रहने में ही दिलचस्पी रखता है। मानव-जाति की जितनी भी ध्वंसमूलक विकृतियाँ हैं जैसे-वैर, वैमनस्य, कलह, घृणा, ईर्ष्या-द्वेष, दुःसंकल्प, दुर्वचन, क्रोध, अभिमान, दम्भ, लोभ, लालच, शोषण-दमन आदि-इन सबको दूर करने का अहिंसा का २. न य वित्तासए परं-उतरा ध्ययन २/२ ३. (क) सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुह-पडिकूला पिय जीविणो जीविउकामा, सव्वेसि जीवियं पियं नाइ वाऐज्ज कंचन-आयाराग १/२/३ (ख) सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयतिणं-दशवकालिक ४. तमाओ ते तंमं जंति मंदा आरम्भनिस्सिया-सूत्रकृतांग १/१/१/१२ ५. वेराई कुव्वइ वेरी, तओ वेरेहिं रज्जति–सूत्रकृतांग १/८/७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy