SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तर प्रदेश के जैन सन्त जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । उसका सम्पूर्ण बल तप-त्याग संयम द्वारा आत्मशोधन एवं आत्मसाधना पर है, और लक्ष्य है इस प्रक्रिया द्वारा आत्मा को परमात्मा बना देना । किन्तु सभी स्त्री-पुरुष संसार त्यागी होकर ऐसी दुष्कर साधना नहीं कर सकते, इसीलिए जैन परम्परा में दो मार्ग विहित हैं- एक सामान्य गृहस्थजनों (श्रावक श्राविकाओं) का मार्ग है जो यथाशक्ति नियम-संयम का आंशिक पालन करते हुए न्यायपूर्वक अथवा धर्मतः अपने अर्थ और काम पुरुषार्थों का साधन करते हैं, सद्नागरिक बनकर अपने दुनियावी कर्त्तव्यों का पालन करते हैं और शनैः-शनैः आत्मोत्कर्ष साधन की ओर अग्रसर होते हैं। दूसरा मार्ग मोक्षमार्ग के उन एकनिष्ठ साधकों का हैं जो संसार - देह-भोगों से विरक्त होकर, गृहत्यागी, निरारम्भी, निष्परिग्रही साधु-साध्वियों के रूप में आत्मसाधना करते हुए तथा यथासम्भव लोकहित करते हुए अपने समय का सदुपयोग करते हैं । अतएव जैन शास्त्रों में साधु की परिभाषा की गई है कि जिसका मन इन्द्रियविषयों की आशा के वशीभूत नहीं है, जो किसी प्रकार का आरम्भ नहीं करता, अपने पास कोई भी अन्तरंग या बहिरंग परिग्रह नहीं रखता, तथा सदैव ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरक्त या लीन रहता है, वही साधु कहलाता है— विषयाशावशातीतो ज्ञान-ध्यान- तपोरक्तस्तपस्वी उसकी दृष्टि में निरारम्भोऽपरिग्रहः । प्रशस्यते ॥ अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य - अपरिग्रह रूप पंच महाव्रत का धारी, मात्र भिक्षा में प्राप्त अन्न ग्रहण करने वाला, आत्मोपम्य का साधक, धर्म का उपदेश देने वाला धीर साधु ही गुरु रूप में मान्य होता है Jain Education International स महाव्रतधराधीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवोमताः ॥ त्यागो हि परमोधर्मः त्यागएव परमतपः । त्यागात् इह यशोलाभः परत्रभ्योदयो महान || वह इस त्यागरूपी परमधर्म का स्वयं तो पूर्णतया पालन करता ही है, अपने अनुयायी श्रावक-श्राविकाओं को भी, इस लोक में यशोलाभ और परलोक में अभ्युदय का दाता प्रतिपादित करके उक्त त्यागधर्म का जीवदया, परसेवा, परोपकार एवं उदार दानशीलता के रूप में यथाशक्ति पालन करने की निरन्तर शिक्षा देता है । ये साधुसवियाँ अपनी आयु बढ़ाने, शरीर को पुष्ट करने या उसका बल और तेज बढ़ाने, अथवा जिह्वा के स्वाद के लिए भोजन नहीं करते, वरन् देने वाले को तनिक कष्ट न हो ऐसी भ्रामरीवृत्ति से और जैसा भी आहार मिले उसमें समभाव वाली गोचरीवृत्ति से मिला शुद्ध, प्राशुक, सात्त्विक आहार, वह भी भूख से कम मात्रा में, दिन में केवल एक बार करते हैं । चातुर्मास के अतिरिक्त किसी एक स्थान में जमकर ८-१० दिन से अधिक नहीं रहते, द्रव्यादि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy