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________________ साधिक दो सहस्र वर्ष पूर्व विकसित स्याद्वाद न्याय का आधुनिक संभावना सिद्धान्त (और तत्सम्बधिन्त तस्तुत्त्व दृष्टि) के साथ अद्भुत सादृश्य है, जैसा कि प्रो. पी. सी. महलनोबिस और जे. बी. एस. हलदाने ने बताया है। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि स्याद्वाद का नील्स बोह, र एवं हीसेनवर्ग के पूरक (Complementarity) सिद्धान्त से अतिनिष्कट साम्य है। महावीर के समय के उपरान्त प्राकृतिक विज्ञान में यही पूरक सिद्धान्त सर्वाधिक क्रान्तिकारी नवीन उदभावना सिद्ध हुआ है। स्याद्वाद का यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक दृष्टिकोण को चुपचाप निर्विरोध स्वीकार कर लिया जाय। उससे तो उसका निषेध, उसका प्रत्यावर्तन हो जायेगा। स्याद्वाद तो सभी संभव दृष्टिकोणों का आलोचनात्मक एवं निर्मम विवेचन है जिससे कि उनमें से प्रत्येक की प्रमाणिकता की सीमाओं को निर्धारित किया जा सके। यह तो कार्य व्यवहार के लिए पथ प्रदर्शक है । आज का संसार भय, घृणा, आक्रामक प्रवृत्ति और हिंसा से आक्रान्त है। यह भी निश्चित है कि हिंसा से हिंसा को समाप्त नहीं किया जा सकता। हिंसा तो और अधिक हिंसा को ही जन्म दे सकती है। उपचार मात्र अहिंसा है। आज वैयक्तिक अथवा संगठित हिंसा का मुकाबला करने के लिए और जीवन को समृद्ध बनाने के लिए दुनिया को अहिंसा की अत्यन्त आवश्यकता है। परन्तु अहिंसा, उसके दर्शन और व्यवहार को समझने, बढ़ावा देने और उसका विकास करने के लिए को गम्भीर प्रयत्न नहीं किया जा रहा है। अहिंसा कोई जादू की छड़ी नहीं है, वह बिना प्रयत्न के प्राप्त होने वाला इलाज नहीं है। इस रूप में वह विज्ञान जैसी ही है। हमारे युग की एक दुःखान्त समीक्षा है कि जब यह दुनिया प्रति वर्ष दो सौ सहस्त्र करोड़ रुपये से अधिक युद्ध और पराभव के अस्त्र-शस्त्र यन्त्र आदिकों पर व्यय (बर्बाद) करती है, तो अहिंसा के लिए वह उसका एक हजारवाँ भाग भी व्यय नहीं करती। और अहिंसा एवं सत्याग्रह के विषय में अभी न जाने कितना कुछ जानना सीखना शेष है-इतना कुछ कि आज हमें उसकी झलक मात्र भी प्राप्त नहीं है। अपनी मृत्यु के ३ मास पूर्व गान्धी जी ने कहा था, "जीवन भर अहिंसा का आचरण करने के कारण मैं उनका एक विशेषज्ञ होने का दावा करता हूँ यद्यपि अत्यन्त अपूर्ण......"। मैं जानता हूँ कि अपने जीवन व्यापार में अहिंसा की पूर्ण अभिव्यक्ति से मैं अभी भी कितनी दर हूँ। दुनिया में अपने इस सर्वोपरि कर्तव्य (धर्म) के प्रति अनभिज्ञता के कारण मनुष्य यह कह देता है कि इस युग में हिंसा के मुकाबले में अहिंसा के लिए बहुत कम स्थान है, जब कि मैं बलपूर्वक यह कहता हूँ कि अणुबम के इस युग में शुद्ध (अमिश्रित) अहिंसा ही एक ऐसी शक्ति है जो हिंसा के समस्त छल बल को एक ही साथ पराभूत सकती है ।" भय और हिंसा एक दूसरे को परिगुणित करते हैं। निर्भयता और अहिंसा साथ-साथ चलते हैं। भगवान महावीर के निर्वाण के २५०० सौ वर्ष पश्चात आज हमारे सम्मुख अन्य कोई कार्य इतना तात्कालिक और इतना अर्थपूर्ण नहीं है जितना कि अहिंसा में अपनी आस्था को पुष्ट करना, अहिंसा को समझना, उसका आचरण करना और उसका प्रसार करना। इस दिशा में जो भी पग उठाया जायेगा, वह चाहे कितना भी छोटा हो, सार्थक होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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