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________________ ३२ ] ख -४ करना चाहिए, अपने आचरण में सुधार करने के लिए सच्चाई के साथ सदव प्रयत्न रहना चाहिए । मुनियों और गृहस्थों के व्रत गुण रूप से समान है, अन्तर जो है वह उनके पालन की मात्रा में है । अतएव साधुओं के प्रसंग में यह महाव्रत कहलाते हैं और अन्य लोगों के लिए अणुव्रत । साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका ( चतुविध संघ ) के आचार के इस आधारभूत एकत्व को जैन संघ की शक्ति एवं लचकीलेपन का बहुत कुछ श्रेय है । अहिंसा का मूलाधार यह अनुभूति है कि मनुष्य का अन्य समस्त प्राणियों के साथ मौलिक आत्मीय सम्बन्ध है । मनुष्य उनका स्वामी नहीं, किन्तु उनका एक साथी प्राणी है। महावीर ने कहा है, "जिस प्रकार जब मुझ पर किसी डण्डे, हड्डी, मुक्के, ढेले या ठीकरे से प्रहार किया जाता है अथवा मुझे धमकी दी जाती है, पीटा जाता है, जलाया जाता है, पीड़ा दी जाती है या मेंरे प्राण लिए जाते हैं, उसमें मुझे जैसा दुख होता है, एक बाल के उखाड़ने से लेकर मृत्यु पर्यन्त की जितनी पीड़ा और यन्त्रणा की मुझे अनुभूति होती है, उसी प्रकार, यह निश्चय से जानो, सभी प्रकार के प्राणी वैसे ही दुःख, पीड़ा, यन्त्रणा आदि का अनुभव करते हैं जैसा कि मैं, जबकि उनके साथ भी वैसा ही बुरा वर्ताव किया जाता है। यही कारण है कि किसी भी प्रकार के जीव या प्राणी का ताड़न-मारन नहीं करना चाहिए, उसके प्रति हिंसक व्यवहार नहीं करना चाहिए, उसको अपशब्द नहीं कहने चाहिए, पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए और उसके प्राणों का घात नहीं करना चाहिए ।" (सूत्रकृतांगजा) जैनधर्म द्वारा प्रतिपादित जीवमात्र की एकता या आत्मोपम्य का सिद्धान्त अब आधुनिक विज्ञान का एक महान सिद्धान्त और विजय बन गया है, जिसका श्रेय चार्ल्स डारबिन के विकासवाद के सिद्धान्त को तथा आणुविक जीवविज्ञान एवं जैनेटिक्स में अभी हाल में हुई प्रगतियों को है । परन्तु यहूदी और ईसाई धार्मिक परम्परा में, जिसे डेसकार्टिस ने और अधिक बल प्रदान किया, मनुष्य अन्य समस्त प्राणियों से सर्वथा पृथक माना गया है। मात्र वही एक ऐसा प्राणी है जिसमें आत्मा होती है । यह सम्भव है कि पश्चिमी औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा वातावरण का जो भयंकर एवं दुर्भाग्यपूर्ण शोषण एवं दूषितीकरण हो रहा वह अंशत: उस आचार संहिता का ही परिणाम है जो मपुष्य की (बल्कि पश्चिमी मपुष्य की ) कल्पना प्रकृति के स्वामी एवं विजेता के रूप में करती है न कि उसके एक भागीदार और साथ रहने वाले के रूप में । इस प्रसंग में मैं स्याद्वाद के विषय में कुछ कहना चाहूँगा जो अहिंसा दर्शन का एक अद्वितीय एवं अभिन्न तत्व है । स्याद्वाद संभावनाओं की अभिव्यक्ति है । वह सभी संभव दृष्टिकोणों से वस्तु के अर्थों की खोज करती है । यह दृष्टियां सात हैं । कोई भी प्रतिषेध या निर्णय सर्वथा सत्य नहीं, प्रत्येक केवल आपेक्षिक रूप में ही सत्य या प्रमाण होता है । जब महावीर के प्रधान शिष्य गौतम ने उनसे पूछा कि क्या आत्मांए शाश्वत हैं अथवा अशाश्वत, तो उन्होंने कहा "गौतम ? आत्माएं किन्ही दृष्टियों से शाश्वत हैं और किन्हीं दृष्टियों से अशाश्वत द्रव्य ; दृष्टि से वे शाश्वत हैं और पर्याय दृष्टि से अशाश्वत या क्षणस्थायी हैं ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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