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चन्द्रनाथ और शान्तिनाथ नाम के तीर्थंकरों के मंदिर भी रहे प्रतीत होते हैं। राजमार्ग के सिरे पर, जंगल में प्रवेश करने के पहिले ही दि० जैन तीर्थ क्षेत्र कमिटी श्रावस्ती ने एक नवीन जिनमंदिर का, जिसमें तीर्थंकर सम्भवनाथ की श्वेतपाषाण की चार प्रतिमाएं विराजमान हैं, तथा एक धर्मशाला का निर्माण कराया है।
अचिरावती (राप्ती) तीरवर्ती यह श्रावस्ती भारतवर्ष की एक अत्यन्त प्राचीन महानगरी रही है । प्राचीन साहित्य में कुणाल देश की राजधानी के रूप में उसका उल्लेख बहुधा हुआ है, कभी-कभी उसे कोसल जनपद की राजधानी भी बताया गया है। वस्तुतः कुणाल नाम प्राचीनतर है। जब अयोध्यापति महाराज रामचन्द्र के उपरान्त उनके पुत्रों के बीच कोसल राज्य विभक्त हुआ तो उनके पुत्र लव के गंशजों ने राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकृत होकर श्रावस्ती को अपनी राजधानी बनाया, और दूसरे पुत्र कुश के वंशज राज्य के दक्षिणी भाग अयोध्या (साकेत)
राज्य करते रहे। सम्भवतया तभी से श्रावस्ती कोसल या उत्तरी कोसल की राजधानी कहलाने लगी।
महाराज रामचन्द्र से सुदीर्घकाल पूर्ण, श्रावस्ती में जैन परम्परा के तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ के गर्भ जन्म, तप और ज्ञान नामक चार कल्याणक हुए, कार्तिकी पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ था । इक्ष्वाकुगंशी, काश्यप गोत्री श्रावस्तीनरेश महाराज दृढ़रथराय अपरनाम जितारि उनके पिता थे और जननी महारानी सुषेणा थीं। वयस्क होने पर सम्भवनाथ का विवाह हुआ और पिता का उत्तराधिकार प्राप्त करके चिरकाल राज्य का उपभोग किया था। एकदा आकाश में बादलों को छिन्न-भिन्न होते देख उन्हें संसार की क्षणभंगुरता का अहसास हुआ और उन्होंने समस्त राज्य श्वर्य का परित्याग करके श्रावस्ती के निकटवर्ती सहेतुक बन में (संभवतया 'सहेतुक' का ही बिगड़कर 'सहेट' हो गया) १४ वर्ष तक दुर्द्धर तपश्चरण किया। उनका प्रथम पारणा भी श्रावस्ती नरेश सुरेन्द्रदत्त (जो सम्भवतया उनके पुत्र एवं उत्तराधिकारी थे) के घर हुआ। अन्ततः उसी सहेतुक वन में, एक शालवक्ष के नीचे उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके उपरान्त उन्होंने शेष जीवन लोक-कल्याण में व्यतीत किया। उनका प्रथम समवसरण एवं धर्म देशना भी श्रावस्ती में ही हुई, चारुषेण उनके प्रधान गणधर थे और आर्यिका धर्मा प्रधान शिष्या थीं।
तदनन्तर, चन्द्रप्रभु, पाश्वनाथ आदि अनेक तीर्थंकरों के समवसरण श्रावस्ती में आये, अनेक जैन कथाओं में इस नगर के उल्लेख आते हैं। महावीर-बुद्ध युग में महाराज रामचन्द्र के वंशज सूर्यवंशी नरेश प्रसेनजित का शासन श्रावस्ती में था । यह नरेश और उसकी महारानी मल्लिकादेवी अत्यन्त उदार, सर्वधर्म-सहिष्णु एवं विद्यारसिक थे । वे तीर्थंकर महावीर और गौतमबुद्ध दोनों का ही समान रूप से आदर करते थे। मक्खलि गोशाल के आजीविक सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र भी यही नगर था। जनता को मनचाहे धर्म का अनुयायी होने की पूरी स्वतन्त्रता थी। भगवान महावीर अपने तपस्याकाल में भी और तीर्थंकर रूप में भी कई बार श्रावस्ती पधारे, यहां उन्होंने वर्षावास भी किये।
प्रसेनजित के उपरान्त श्रावस्ती धीरे-धीरे पतनोन्मुख होती गई, तथापि गुप्तकाल में भी वह कोसलदेश की प्रधान नगरी समझी जाती थी, और हर्षवर्धन के राज्य की श्रावस्ती मुक्ति का केन्द्रालय थी। चीनी यात्रियों फाह्यान और युवानच्वांग ने भी इस नगर की यात्रा की थी। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दियों में श्रावस्ती में जैनधर्मावलम्बी ध्वजवंशी नरेशों का शासन था। इसी वंश के प्रसिद्ध राजा सुहिलध्वज अपरनाम वीर सुहेलदेव ने १०३२ ई० के लगभग गजनी के सैयद सालार मसऊद गाजी को बहराइच के भीषण युद्ध में ससैन्य समाप्त कर दिया था। सुहेलदेव के पौत्र हरसिंहदेव के समय (११३४ ई०) तक यह राज्य चलता रहा, जब कि कन्नौज के चन्द्रदेव गाहडवाल ने श्रावस्ती पर आक्रमण करके उसे तहस-नहस कर डाला। गाहडवालों के उपरांत यहां १३वीं
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