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________________ से अयोध्या की यात्रा करने आये थे । औरंगजेब के शासनकान में अयोध्या के मंदिरों का पुनः विध्वंस हुआ। अतएव सन् १७२२-२३ ई० में जब सादत खाँ बुरहानुल्मुल्क अवध का सुबेदार नियुक्त हुआ और उसके साथ दिल्ली से आये उसके खजांची ला० केशरीसिंह ने, जो कि अग्रवाल जातीय दिगम्बर जैन थे, अयोध्या के जिनायतनों की दुर्दशा देखी तो उन्होने उनका जीर्णोद्धार कराकर मार्गशीर्ष मुक्ल पूर्णिमा सम्वत् १७८१ (सन् १७२४ ई०) में उनकी पुनः प्रतिष्ठा कराई। इस प्रकार, स्वर्गद्वारी मुहल्ले में आदिनाथ, बकसरिया टोले में अजितनाथ, कटरा मुहल्ला में अभिनन्दननाथ और सुमतिनाथ, तथा राजघाट पर अनन्तनाथ के टोंकों का उक्त ला० केशरी सिंह ने पूननिर्माण कराया था। उसके कुछ वर्ष पश्चात (संभवतया संवत् १९३६-४१ में) कटरा मुहल्ला की सुमतिनाथ टोंक को बीच में लेकर एक अच्छा शिखरबंद मंदिर भी बन गया। १८९९ में (कार्तिक सुदी १३ सं० १९५६) में लखनऊ के ला० देवीदास गोटेवाले आदि जैन पंचों ने मिलकर उक्त सब टोंकों और कटरा के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तथा मंदिर के सामने एक विशाल धर्मशाला बनाने की नींव भी डाल दी। तदुपरान्त अवध के लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद आदि जिलों के जैन अयोध्या तीर्थ के रखरखाव एवं विकास में योग देते रहे हैं। कटरा में दुमंजली धर्मशाला है और उसके सम्मुख स्थित मंदिर में चार बेदियां हैं, जिनमें से एक में भगवान आदिनाथ और उनके दो पुत्रों, भरत और बाहुबलि की खड़गासन मनोज्ञ प्रतिमाएं विराजमान हैं। उसी मुहल्ले में एक चहारदीवारी में बन्द बगीचे के मध्य सुन्दर श्वेताम्बर मंदिर है। राजघाट के अनन्तनाथ मंदिर की स्थिति प्राकृतिक दृष्टि में दर्शनीय है। सन् १९६५ ई० में आचार्य देशभूषण की प्रेरणा और दिल्ली आदि विभिन्न स्यानों के धर्मात्मा जैनों के उत्साह एवं सहयोग से मुहल्ला रायगंज में रियासती बाग के मध्य में एक नवीन भव्य मंदिर का निर्माण हुआ है जिसमें मूलनायक के रूप में एक ३१ फीट ऊँची विशाल एवं मनोज्ञ कायोत्सर्ग प्रतिमा भगवान आदिनाथ की अपूर्व समारोह के साथ प्रतिष्ठित की गई है। अन्य भी कई प्रतिमाएं हैं एवं सुविधाओं से युक्त धर्मशाला भी है। प्रतिवर्ष ऋषभजयन्ति (चैन बदि नवमी) के अवसर पर यहाँ भारी जैन मेला और रथोत्सव भी होता है। . इस प्रकार आदि जैन तीर्थ अयोध्या के जैन धर्मायतन मात्र जैनों के लिए ही नहीं, सामान्य पर्यटकों के लिए भी दर्शनीय एवं प्रेरणाप्रद हैं। अयोध्या और उसके जैन स्मारक जैन संस्कृति के इतिहास के एक बड़े अंश को अपने में समोये हुए हैं। एसा पुरी अउज्मा सरऊ-जलसिच्चमाणगढ़मित्ती।। जिणसमयसत्ततित्थीजत्त पवित्तिअ जणा जय ॥ -(वि. ती. कल्प) श्रावस्ती उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में, बहराइच-बलरामपुर राजमार्ग पर, बहराइच से लगभग ४० कि० मी. तथा बलरामपुर से १८ कि० मी० की दूरी पर स्थित, ४-५ कि० मी० के विस्तार में फैले हुए खंडहरों से प्राचीन महानगरी श्रावस्ती की पहचान की जाती है। चिरकाल से यह स्थान सहेट-महेट के नाम से विख्यात रहता आया है। खंडहरों के मध्य से जाने वाली पक्की सड़क के एक ओर का भूभाग सहेट कहलाता है, जिसमें बौद्ध स्तूप, संघाराम आदि के अवशेष पाये गये हैं और एक नवीन बौद्ध संस्थान विकसित हुआ है। सड़क के दूसरी ओर का भाग महेट कहलाता है, और उसी में जंगल के बीच ऊँचे टीलों से घिरा हुआ, जो मूलतः परकोटा रहा होगा, एक अर्धभग्न प्राचीन जैन मंदिर है, जो भगवान सम्भवनाथ के जन्म स्थान के रूप में प्रसिद्ध है। उसके आसपास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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