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________________ २२ ] ख - ३ इसके उत्तर में गौतम स्वामी ने कहा कि हाँ हो सकता है। यह सुनकर आनन्द ने उनसे कहा कि भगवान आपकी कृपा से मैं चारों दिशाओं और ऊपर नीचे के अमुक क्षेत्र तक जानता और देखता हूँ। यह सुनकर गौतम स्वामी ने अनुपयोग से ऐसा कह दिया कि है आनन्द ! तुम जिसने उच्च स्तर के ज्ञान की कह रहे हो वह गृहस्थों के लिए संभव नहीं, इसलिए इस कथन की आलोचना और दण्ड ग्रहण करो, क्योंकि तुमने अतिशयोक्तिपूर्ण बात कही है । यह सुनकर आनन्द बोला कि भगवन् सत्य, यथार्थ और सद्भूत भाव की आलोचना करना, यावत् दण्ड ग्रहण करना, क्या जिनधर्म में मान्य है ?' गौतम स्वामी ने कहा कि ऐसा तो नहीं है। तब दृढ़ता के साथ आनन्द बोला तो फिर भगवान् आपने जो मेरी बात को अतिशयोक्तिपूर्ण बतलाई है, उसके लिए आप ही आलोचना और दण्ड लें, क्योंकि मैं तो अपने अवधिज्ञान से जितने क्षेत्र तक जानता और देखता हू, उतनी पूरी वही सत्य बात आपसे कही है, उसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है । जब गौतम स्वामी ने आनन्द का दृढ़तापूर्वक ऐसा कहना सुना तो उनके मन में विचार हो आया कि क्या मैंने ही अनुचित बात (अनुपयोग से) कह दी है। इसका निश्चय करने के लिए वे भगवान् महावीर के पास पहुंचे और उन्हें वन्दना नमस्कार करके बोले कि भगवन् मैं भिक्षा ग्रहण करके श्रमणोपासक आनन्द के पास पहुँचा, उसने अपने अभिज्ञान की बात कही, तब मैंने इतने उच्च स्तर का अवविज्ञान गृहस्थ को नहीं होता, कह दिया क्या इस कथन के लिए मैं आलोचना और दण्ड का भागी हूँ ? या मानन्द श्रावक है ? 1 भगवान महावीर को वीतरागता और निष्पक्षता का यहाँ पूर्ण परिचय मिल जाता है जबकि उन्होंने अपने प्रधान शिष्य गौतम का तनिक भी पक्षपात न करते हुए यह स्पष्ट रूप से कह दिया कि 'हे गौतम! इस विषय में तो तुम्हें ही आलोचना और दण्ड ग्रहण करना चाहिए, आनन्द धावक ने तो जैसा और जितना देखा जाना उतना सत्य वचन कहा है। इसलिए तुमने जो गलती की उसके लिए आनन्द श्रावक से तुम्हें क्षमा मांगनी चाहिए।' भगवान महावीर ने गौतम जैसे अपने प्रधान शिष्य की गलती को बतला कर अपनी निष्पक्षता का जो परिचय दिया है वह बहुत ही उल्लेखनीय महत्वपूर्ण और अनुकरणीय है। पूर्ण वीतरागता के बिना ऐसा कहना सम्भव नहीं है। उन्होंने केवलज्ञान और केवलदर्शन में सारे विश्व की कालिक वस्तुओं का स्वरूप जैसा भी देखाजाना वही निरूपण किया। यह उनके वचन की प्रमाणिकता का अनुपम उदाहरण है । 1 गौतम स्वामी भी भगवान महावीर के प्रति कितने श्रद्धाशील थे, और कर्मबन्ध और मोह भ्रमण से कितने भीरु तथा सरल और निराभिमानी थे कि भगवान महावीर द्वारा अपनी गलती मालूम होने पर तत्काल उन्होंने कहा—‘भगवन् ! आपका कथन सत्य है । मैं आनन्द श्रावक से क्षमा मांगने के लिए जा रहा हूँ । आलोचना और दण्टग्रहण के लिए उद्यत हूँ यह कहते हुए वे तत्काल आनन्द धावक के पास पहुँचे और अनुपयोग से जो अयोग्य कह दिया था, उसके लिए आनन्द से क्षमा मांगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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