SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १७ *MINV-MAVAN वत्थं पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं । णहि वत्थुदो बंधो, अज्झवसाणेण बंधोदु ॥ कोई भी वस्तु जीव का भला-बुरा नहीं करती, उसके अपने विकार भाव (अध्यबसान) ही करते हैं, उन्हीं के कारण कर्मबंध होता है, किसी वस्तु से नहीं। अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाणय दुहाणय आत्मा स्वयं अपने दुःख-सुख का कर्ता और हर्ता है । रागो दोसो मोहो ए ए एत्थ तिय दूसण दोसा। रायो य दोसो य कम्मवीयं ॥ राग, द्वेष और मोह ही इस आत्मा के महान दूषण और दोष हैं, और राग एवं द्वेष ही कर्म के बीज हैं । जहाकडं कम्मं तहासि मारे जैसा कर्म किया जाता है, उसका वैसा ही फल भोगना होता है । कत्तारमेव अणुजाइ कम्म कर्म सदैव करने वाले के पीछे-पीछे चलते हैं। णाणं अंकुसभूदं मत्तस्स हु चित्त-हत्थिस्स चित्तरूपी उन्मत्त हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान अंकुश के समान है । णाणपदीओ पज्जलइ जस्स हियए विसुद्धलेस्सस्स विशुद्ध परिणाम वाले हृदय (शुद्धचित्त) में ज्ञान-दीप सतत प्रकाशमान रहता है । जावइया वयणपहा तावइया चेव हंति नयवाया। जेण विणावि लोगस्स ववहारो सव्वहान निव्वडई॥ जितने भी वचनपथ हैं, उतने ही नयवाद हैं-जो कुछ भी कहा जाता है, वह किसी न किसी दृष्टि (नय) से कहा जाता है । इन नयविवक्षा के द्वारा ही अखिल जगत के समस्त व्यवहार चलते हैं । जावंतो वयणपहा, तावंतो वा नया विसद्दाओ। ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदया सव्वे ॥ जो कुछ भी बोलने में आता है वह किसी न किसी नय (वृष्टि) से कहा जाता है। अलग-अलग रहने पर ये सभी मिथ्यादृष्टियाँ हैं, और परस्पर में समुदित (समन्वित) हो जाने पर वे ही सम्यक् दृष्टियां बन जाती हैं। MATTOMATO Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy