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१८ ] *MAVNAVIK
जमणेग धम्मणो वत्थुणो, तदंसे च सव्व पडिवत्ती।
अन्धव्व गयावयवे, तो मिच्छदिठिणो वीसु॥ जैसे हाथी को टटोलकर देखने वाले जन्मान्ध व्यक्ति उसके एक-एक अंग को ही पूरा हाथी मान बैठते हैं, उसी प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तु के विषय में अपनी-अपनी अटकल, उसके किसी एक पक्ष को ही लेकर, दौड़ाने वाले व्यक्ति उस एक अंश को ही सम्पूर्ण वस्तु मान बैठते हैं । वस्तु-स्वरूप अनेकान्त दृष्टि से ही सिद्ध होता है।
__तस्स भुवणेकगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स लोक के उस एक मात्र (अप्रतिम) गुरु अनेकांतवाद को नमस्कार हो।
णाणा जीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी।
तम्हा वयणविवादं सगपर समएहि वज्जिज्जो ॥ लोक में अनेक जीव हैं, कर्म भी अनेक प्रकार के हैं, और प्रत्येक व्यक्ति की नाना प्रकार की उपलब्धियां होती हैं। अतएव अपने मत अथवा दूसरे मत के माननेवाले किसी भी व्यक्ति के साथ वचन-विवाद (वाद-विवाद) करना उचित नहीं है।
विवत्ती अविणीयस्स संपत्ती विणीयस्स य ।
जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ ॥ अविनीत (विनय रहित) को विपत्ति प्राप्त होती है और विनीत को सम्पत्ति-जिसने यह जान लिया, वही शिक्षा ग्रहण कर सकता है।
जे य कंते पिए भोए लद्धेवि पिट्ठी कुव्वई।
साहीणे चयइ भोए से हु चाइत्ति बुच्चई ॥ जो व्यक्ति सुन्दर और प्रिय भोगों को प्राप्त करके भी उनकी ओर से पीठ फेर लेता है, सब प्रकार के स्वाधीन भोगों का परित्याग कर देता है. वही सच्चा त्यागी है।
समिक्ख पंडिए तम्हा पास जाइ पहे बहू ।
अप्पणा सच्चमे सेज्जा मेत्ति भूयेसु कप्पए ॥ बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि दुष्कर्म-पाशों को भली भांति समझकर स्वतन्त्ररूप से स्वयं सत्य की खोज करे और सब प्राणियों पर मैत्रीभाव रखे।
न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कदाचनं ।
अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो॥ वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, अवर से ही वर शान्त होता है-यही सनातन नियम है।
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