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ख-६
जाने और कर्णाटक देश के एक भाग में सान्तार वंश की स्थापना करने के प्रमाण मिलते हैं । दक्षिण कर्णाटक का यह जैन राजवंश कालान्तर में कई शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त होता हुआ हुम्बच, कार्क आदि स्थानों में उत्तर मध्यकाल पर्यन्त चलता रहा। मथुरा में इस वंश के मूल पुरुषाओं के वंशज स्थानेश्वर के वर्धनवंशी नरेशों और तदनन्तर कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों की अधीनता में आस-पास के प्रदेश पर राज्य करते रहे । राजपूत युग में भी ग्वालियर, कन्नौज और दिल्ली के राज्यों के बीच मथुरा का छोटा सा राज्य दबा रहा तथा १३वीं शती ई० में दिल्ली पर मुसलमानों का अधिकार होने के उपरान्त मथुरा पर भी उनका शासन स्थापित हो गया। उत्तर मुगलकाल में कुछ समय के लिए भरतपुर के जाट राजाओं ने भी इस नगर पर अधिकार रक्खा किन्तु शीघ्र ही वह अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत आ गया और आगरा कमिश्नरी का एक जिला बना दिया गया।
अपने इस दीर्घकालीन इतिहास में मथुरा नगर यद्यपि कभी भी पूरे देश या पूरे उत्तरापथ का तो प्रश्न ही क्या, किसी बड़े राज्य की भी राजधानी नहीं रहा, तथापि वह प्रायः सदैव एक सर्वप्रसिद्ध, सामान्यतः समृद्ध एवं दर्शनीय नगर बना रहा । इसके कई कारण रहे-एक तो यह नगर भारत के एक प्राचीन एवं प्रधान राजपथ तथा उत्तरापथ की एक प्रमुख नदी के किनारे स्थित है, जलवायु स्वास्थ्यकर है और आस-पास का प्रदेश उपजाऊ एवं धन-धान्य बहुल है । बड़ी-बड़ी राजधानियों से दूर रहने के कारण राजनीतिक क्रान्तियों, उथल-पुथल एवं युद्धादि के प्रत्यक्ष प्रभावों से भी बचा रहा । अति प्राचीन काल से ही यूनानी, शक, पलव, कुषाण, हूण आदि विदेशी जातियों के यहां आते रहने, शासन करते रहने तथा बसते रहने से यह भारतीयों एवं विदेशियों का एक अच्छा मिलन स्थल रहा, अत: यहां देशी और विदेशी विभिन्न संस्कृतियों का आदान-प्रदान एवं सम्मिश्रण भी हआ। इसका फल यह हुआ कि मथुरा का व्यापार एवं व्यवसाय प्राचीन काल में सदैव बढ़ा-चढ़ा रहा, और साथ ही वह एक नवीन कला शैली के, विशेषकर मूर्तिकला के क्षेत्र में, विकास का भी प्रधान केन्द्र बन गया । आस-पास में लाल बलुए पत्थर की बहुलता भी यहां इस कला के प्रोत्साहन में बड़ी सहायक हुई। विभिन्न विचारधाराओं के सम्पर्क एवं सम्मिश्रण से इस नगर में विचार स्वातन्त्र्य एवं उदार सहिष्णुता का भी संचार रहा । कुछ प्राचीन जैन ग्रंथों में इस नगर को 'पाखण्डिगर्भ' कहा है और इस विशेषता का हेतु यह बताया है कि इस नगर में अनेक विभिन्न धर्म-धर्मान्तरों के साधु, तपस्वी एवं विद्वान बहुलता के साथ पाये जाते थे ।
__वस्तुतः मथुरापुरी जैन, बौद्ध एवं हिन्दू तीनों ही प्रधान भारतीय धर्मों और उनकी संस्कृतियों का सुखद मिलन स्थल शताब्दियों ही नहीं सहस्त्राब्दियों पर्यन्त बनी रही। जैनधर्म के साथ तो इस नगर का अत्यन्त प्राचीन काल से लेकर प्रायः वर्तमान पर्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहा है, और उसके प्रसिद्ध धर्मतीर्थों में उसकी गणना है। सातवीं-आठवीं शताब्दी ई० पूर्व से लेकर मुगल शासनकाल पर्यन्त, लगभग ढाई हजार वर्ष तक मथुरा में जैनधर्म उन्नत अवस्था में रहा और यह नगर जैनों का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र बना रहा। इसके बीच भी, शंगकाल (दूसरी शती ई०पू०) से लेकर गुप्तकाल (६ठीं शती ई०) पर्यन्त तो जैनी मथुरा का चरमोत्कर्ष रहा है ।
जैन पुराणों, चरित्र ग्रंथों, आगमिक साहित्य, कथा-कोषों एवं आख्यायिकाओं आदि में मथुरा के अनगिनत उल्लेख मिलते हैं और उसकी गणना प्राचीन, प्रसिद्ध एवं प्रमुख तीर्थों में की जाती है। कतिपय जैन अनश्रतियों के अनुसार सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का इस नगर में पदार्पण हुआ था और उस समय उनकी पूजा के लिए यक्षादि देवों ने रातोंरात स्वर्ण के एक विशाल रत्नजटित स्तूप की यहां स्थापना की थी। सुपार्श्व के उपरान्त अन्य कई तीर्थंकरों का भी शुभागमन इस नगर में हुआ और तेइसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (८७७-७७७ ई०१०) का भी समवसरण यहां आया था तथा उस स्थान पर कल्पद्रुम की स्थापना की गयी थी। पार्श्वनाथ के समय में उपर्यक्त देवनिर्मित स्तूप को ईटों से आच्छादित कर दिया गया था। इसका कारण यह बताया जाता है कि
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