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तत्कालीन राजा के हृदय में स्तूप में लगे स्वर्ण एवं रत्नों को हस्तगत करने की दुर्भावना उत्पन्न हो गयी थी। गत शताब्दी में मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में इस प्राचीन जैन स्तूप के भग्नावशेष प्रकाश में आये । वहीं से प्राप्त ई० सन् के प्रारम्भिककाल के कुछ शिलालेखों में इस स्तूप के लिए 'देवनिर्मित' विशेषण प्रयुक्त है। पुरातत्वज्ञो का अनुमान है कि यह स्तूप लगभग सातवीं शताब्दी ई० पू० में बना होगा, और न केवल मथुरा का यह देवनिर्मित जैन स्तूप सम्पूर्ण भारतवर्ष में उपलब्ध जैनों एवं बौद्धों के समस्त स्तूपों में सर्वप्राचीन है, वरन् इतिहास-कालीन भारत का सर्वप्राचीन उपलब्ध स्थापत्य भी है।
अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर (५९९-५२७ ई० पू०) का भी इस नगर में पदार्पण हुआ था। मथुरा का तत्कालीन राजा उदयादित्य अथवा भीदाम उनका परम भक्त था, और उसके अनेक प्रजाजन उनके अनुयायी थे। भगवान महावीर के उपरान्त अन्तिम केवली जम्बूस्वामी ने, जिनका कि निर्वाण ४६५ ई० पू० में हुआ था, मथुरा के चौरासी क्षेत्र पर चिरकाल तपस्या की थी। एक अनुश्रुति के अनुसार तो जम्बूस्वामी का निर्वाण भी इसी स्थान से हुआ था और इसी कारण मथुरा की गणना जैन परम्परा के सिद्धक्षेत्रों में भी की जाती है। इसी स्थान पर जम्बूस्वामी ने अञ्जन चोर नामक दस्युराज को उसके पांच सौ साथियों सहित अपने तप तेज से प्रभावित करके अपना अनुयायी बनाया था। इन दस्युओं ने अपने दस्युकर्म का परित्याग करके मुनि दीक्षा ली और उसी वन में घोर तपस्या करके सद्गति प्राप्त की। इन मुनियों की स्मृति में उक्त स्थान पर ५०० स्तूप निर्माण किये गये थे । भिन्न-भिन्न अनुश्रुतियों के अनुसार मथुरा में प्राचीन देवनिर्मित स्तूप के अतिरिक्त ५००,५०१ या ५१४ जैन स्तुप और विद्यमान थे । इन स्तूपों के १६वीं शताब्दी ई. तक विद्यमान रहने और उस समय मुगल सम्राट अकबर के एक कृपापात्र मुसाहिब, भटानिया कोल निवासी एवं अग्रवाल वंशी जैन सेठ साहू टोडर द्वारा उनके जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा कराने के उल्लेख तत्कालीन पांडे राजमल्ल के संस्कृत जम्बूचरित्र एवं पांडे जिनदास के हिन्दी जम्बूस्वामी चरित्र में प्राप्त होते हैं । उसके पूर्व भी दो एक बार इन स्तूपों के जीर्णोद्धार किये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं।
कहा जाता हैं कि जैनों के प्राचीन देवनिर्मित स्तूप पर बौद्धों ने भी कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया था और ब्राह्मणों एवं विष्णु, सूर्य आदि के उपासकों ने भी स्तूप पर अपना दावा जताया था। काफी समय तक यह वाद-विवाद चला। इस विवाद की सूचना पाकर दक्षिण आदि सुदूर देशों से भी प्रभावशाली जैनी मथरा आये । मथुरा का तत्कालीन राजा न्यायपरायण था और उसने जैनों के पक्ष में ही निर्णय दिया। स्तुप पर जैनों का पुनः अधिकार हो गया। इस घटना के उल्लेख हरिषेण के वृहत्कथाकोष (९५९ ई०) तथा जिन प्रभसूरि के विविध तीर्थकल्प (१४वीं शती) के अन्तर्गत मथुरापुरीकल्प में मिलते हैं । इस घटना का एक सुफल यह हुआ कि उसके उपरान्त मथुरा के जनसंघ की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती गयी । उपरोक्त घटना सम्भवतया अशोक के समय (३री शती ई०पू०) की है।
___ जैन साहित्य में प्राचीन मथुरा के प्रसिद्ध बारह बनों, वहां के देवनिर्मित स्तूप, कल्पद्रुम, अम्बिका का मन्दिर आदि विभिन्न जैन धर्मायतनों, भंडीर यक्ष की यात्रा, कौमुदी महोत्सव, पट महोत्सव आदि उत्सवों, वस्त्र व्यवसाय, मूर्ति निर्माण कला, आदि के अनेक उल्लेख पाये जाते हैं।
इस जैनी मथुरा और उसके संघ का चरमोत्कर्ष काल उत्तरमौर्य काल से लेकर गुप्तकाल के अन्त पर्यन्त, लगभग सात आठ-सौ वर्ष तक रहा । इसमें भी शुंग-शक-कुषाण काल ( लगभग १५० ई० पू०-२०० ई० ) में वह अपनी उन्नति के चरम शिखर पर था। मथुरा के यवन, शक, कुषाण आदि वंशों के तत्कालीन नरेश जैनधर्म
। काल ( लगभग १५० ६० ५०-२००६०
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