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________________ ५४ ] के प्रति अत्यन्त उदार एवं सहिष्णु रहे और मथुरा एवं उसके आसपास बसने वाली विभिन्न जातियों, वर्गों एवं व्यवसायों के अनगिनत स्त्री पुरुष उसके उत्साही अनुयायी बने। मथुरा और उसके आसपास से प्राप्त अनगिनत तत्कालीन जैन कलाकृतियां एवं सैकड़ों शिलालेख इस बात को भली भांति प्रमाणित कर देते हैं कि उस काल के मथुरा के जैन गुरु न केवल संघभेद के विरोधी तथा समन्वय एवं मेल के सक्रिय समर्थक थे वरन् वे अत्यन्त उदारचेता एवं प्रगतिशील भी थे। मथुरा जनसंघ की इस उदाराशयता एवं प्रगतिशीलता का ज्वलन्त उदाहरण वह महान सरस्वती आंदोलन ' है जिसने तत्कालीन जैन संसार में भारी क्रान्ति मचा दी थी। उन्होंने अवशिष्ट आगमज्ञान के संकलन एवं लिपिबद्ध करने और जैन साधुओं में लिखने की प्रवत्ति का प्रचार करने के लिए एक व्यवस्थित आन्दोलन चला दिया था । उन्होंने पुस्तकधारिणी सरस्वती देवी की प्रतिमाएँ निर्माण कराकर प्रतिष्ठित की और ज्ञान की उस देवी को अपने आन्दोलन की अधिष्ठात्री बनाया। पुस्तक साहित्य विरोधी जैन साधुओं के लिए स्वयं वाग्देवी सरस्वती का प्रस्तकिन एक चुनौती था। मथुरा के जैन साधु ही इस आन्दोलन के पुरस्कर्ता, प्रवर्तक एवं आद्य नेता थे। मूर्तियों, स्मारकों एवं अन्य धामिक कलाकृतियों पर शिलालेख अंकित कराना प्रारम्भ करके उन्होंने इस आन्दोलन को सक्रिय रूप दिया। मथुरा के जैन गुरुओं ने जैनधर्म को न केवल वर्ण, जाति, लिंग आदि के भेदभावों से उन्मुक्त रखा और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, विभिन्न व्यवसायों को करने वाले उच्च जातीय, नीच जातीय, विविध वर्गीय, देशीविदेशी, स्त्री-पुरुष, सभी को समान अधिकारों के साथ स्वधर्म में दीक्षित किया, वरन अपनी धर्माश्रित कला को भी विविध प्रकारों एवं रूपों में अत्यन्त उदारता एवं मनस्विता के साथ विकसित किया । भारतवर्ष में लेखन प्रवृत्ति को लोकप्रिय एवं जनता की चीज बनाने वाले सर्वप्रथम लोग सम्भवतया इस काल के मथुरा के जैन साधु ही थे। और इस काल की मथुरा में ही सर्वप्रथम एक सुगठित जैन साधु संघ के साथ-साथ एक सुव्यवस्थित एवं विशाल जोन साध्वी संघ के भी दर्शन होते हैं। ३री शताब्दी ई० में मथुरा में कुषाण शक्ति का पराभव प्रारम्भ हो गया और समस्त उत्तरापथ में शनैः शनैः नाग राज्यों का जाल फैल गया । ये नागराज्य गणसंघ प्रणाली पर व्यवस्थित हुए। नागों के उत्तराधिकारी वकाटक हुए और तदन्तर चौथी शती ई० के अन्तिम पाद तक समस्त उत्तरापथ गुप्त साम्राज्य की छत्रच्छाया में आ गया । इन नाग, वकाटक एवं गुप्त वंशों के प्रायः सभी नरेश सर्वधर्म सहिष्णु थे । मथुरा का जनसंघ उनके शासनकालों में सुखपूर्वक फलता फूलता रहा, किन्तु उसका मध्यान्ह व्यतीत हो चुका था, पहिले जैसा तेज और प्रभाव, संख्या और शक्ति अब न रह गयी थी-उनमें धीरे-धीरे ह्रास होता चला गया। सन् ईस्वी की ८वी-९वीं शताब्दी में गुर्जर प्रतिहार नरेश आमराज के गुरु बप्प भट्टिसूरि ने मथुरा के अनेक प्राचीन धर्मायतनों का जीर्णोद्धार कराया बताया जाता है । उसी काल में एक दक्षिणाचार्य ने वहां माथुर संघ की स्थापना की थी। आमराज का पौत्र प्रसिद्ध भोजराज भी जैनधर्म का भारी प्रश्रयदाता था। इस प्रकार उत्तर-गुप्तकाल में अथवा कन्नौज साम्राज्य काल में मथरा में जैन धर्म अच्छी दशा में तो रहा किन्तु इसी काल में (९वीं-१०वीं शती ई०) में वहां सर्वप्रथम दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद भी उत्पन्न हो गया। दोनों ही सम्प्रदायों ने अलग-अलग कतिपय प्राचीन धर्मायतनों पर भी अपना-अपना अधिकार कर लिया और अपने नवीन भन्दिर भी पृथक-पृथक बनाने प्रारम्भ कर दिये तथा ११वीं१२वीं शताब्दी में मूर्तियां भी पृथक-पृथक बनानी प्रारम्भ कर दी। तथापि १३वीं शती ई० तक मथुरा का जैन क्षेत्र, जिसका प्रधान केन्द्र कंकाली टीले (देवनिर्मित स्तूप की स्थिति) से लेकर चौरासी पर्यन्त था, समुन्नत एवं सुरक्षित दशा में रहा। इस काल के अनेक प्रतिमालेख इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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