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________________ ख-६ [ ५५ तथ्य के साक्षी हैं । उनसे यह भी स्पष्ट है कि महमूद गजनवी की मथुरा की भयंकर लूट (१०१८ ई०) एवं मन्दिर-मूति-विध्वंस से मथुरा का यह जैनकेन्द्र और उसके धर्मायतन सुरक्षित बचे रहे। इस तथ्य पर हतिहासज्ञों को निरन्तर आश्चर्य होता है । तेरहवीं शताब्दी से ही उत्तर भारत में मुसलमानी शासन स्थापित हो गया और सम्पूर्ण मध्यकाल में मथुरा की स्थिति प्रायः करके एक धर्मतीर्थ की ही रही। दक्षिण, पूर्व पश्चिम तथा अन्य प्रदेशों से मथुरा की यात्रा के लिए आने वाले जैन विद्वानों, साधुओं एवं गृहस्थों के उल्लेख १३वीं से लेकर १९वीं शताब्दी पर्यन्त अनेकों मिलते हैं । १८वीं शताब्दी में भरतपुर के जाट नरेश हीरासिंह के प्रश्रय में पल्लीवाल वंशी चौधरी जोधराज ने भट्टारक महानन्दसागर द्वारा मथुरा में मन्दिर एवं मूर्ति प्रतिष्ठा कराई थी। १९वीं शताब्दी के प्रारम्भ में चौरासी क्षेत्र का वर्तमान मन्दिर प्राचीन मन्दिर के भग्नावशेषों के ऊपर निर्मित किया गया था । इसी शताब्दी में मथुरा के प्रसिद्ध जैन सेठ रघुनाथ दास और उनके सुपुत्र राजा लक्षमणदास मथुरा के ही नहीं, अखिल भारतवर्षीय जैन समाज के स्तम्भ थे। राजा लक्ष्मणदास भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के संस्थापकों में से भी एक थे । गत शताब्दी में ही मथुरा के कंकाली टीले की युगान्तरकारी खुदाई राजकीय पुरातत्व विभाग की ओर से की गयी, जिसके फलस्वरूप प्राचीन जैन नगरी मथुरा का नैभव प्रकाश में आया और इस नगर के साथ ही साथ जैनधर्म एवं भारतवर्ष के भी प्राचीन इतिहास के निर्माण में परम सहायक हुआ। वर्तमान शताब्दी में चौरासी क्षेत्र पर ऋषभ-ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित हुआ और तदनन्तर उसी के निकट अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जनसंघ का भवन बना एवं कार्यालय स्थापित हुआ। संघ का मुखपन जैनसन्देश और उसका शोधांक भी इसी स्थान से निकलते हैं। चौरासी क्षेत्र पर प्रतिवर्ष कार्तिक मास में मेला होता है। [विशेष विस्तृत जानकारी के लिए देखें हमारे लेख-मथुरा (जै० सि० भास्कर, भा० २२, कि० २, पृ० २३-३२); मथुरा में जैनधर्म का उदय और विकास (ब्रजभारती, व २५, अं० २, पृ० २-२३); जैनसाहित्य में मथुरा (अनेकांत, जून १९६२, पृ० ६५-६७); मथुरा का जैन पुरातत्व एवं शिलालेख (शोधांक १९, पृ० २९६३०१): मथुरा की जैनकला (शोधांक २०, पृ० ३३८-३४०); मथुरा के जैन शिलालेख (शोधांक २१, पृ० २-१०); मथुरा के प्राचीन जैन मुनियों की संघ व्यवस्था (शोधांक २३, पृ० ७२-८३), इत्यादि ।] (घ) भगवान महावीर के विहार स्थल हरिवंशकार आचार्य जिनसेन ने जिन देश-प्रदेशों में भगवान महावीर का विहार हआ बताया है, उनमें से काशि (बनारस कमिश्नरी), कौशल (अवध प्रान्त), वत्स (इलाहाबाद कमिश्नरी), शौरसेन और कुशात (आगरा कमिश्नरी-ब्रजमंडल एवं भदावर प्रान्त), पांचाल (रूहेलखंड एवं गंगापार के फर्रुखाबाद आदि जिले), कुरुजांगल (मेरठ कमिश्नरी), वर्तमान उत्तर प्रदेश के ही विभिन्नभूभाग थे। वर्तमान बुन्देलखंड के जिलों में भी उनका विहार हुआ लगता है। इस प्रकार प्राय: सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में वह विचरे थे। प्रसिद्ध नगरियों एवं स्थानों में, वाराणसी, श्रावस्ति, कौशाम्बी, काकंदी, साकेत (अयोध्या), प्रयाग (पुरिमताल), मथुरा, हस्तिनापुर आदि में वह विचरे थे। अन्य स्थानों में सेयंविया (श्वेताम्बिका) की पहचान श्रावस्ती के निकटस्थ सीतामढ़ी से की जाती है, कयंगला भी श्रावस्ती के निकट स्थित था। हलिङ्ग उत्तर-पूर्वी उत्तर प्रदेश में कोलियों की राजधानी रामगाम के निकट था। वेदशास्त्री पंडितों का निवास स्थान नंगला कोशल देश (अवध) में स्थित था, आलभिका की पहचान उन्नाव जिले के नवलगांव से अथवा इटावा जिले के एरवा नामक स्थान से की जाती है। विसाखा की पहवान कुछ विद्वान उत्तर प्रदेश की वर्तमान राजधानी लखनऊ से करते हैं। उत्तर वाचाला से उत्तर पांचाल और उसकी राजधानी अहिच्छता का, दक्षिण वाचाला से दक्षिण पांचाल और उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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