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________________ राजधानी काम्पिल्य का तथा कनखल आश्रमपद से हरिद्वार के निकटस्थ कंखल से अभिप्राय हो सकता है। पोदनपुर या पोत्तनपुर की पहचान इलाहाबाद जिले में गंगापार स्थित वर्तमान झसी से की जाती है, जिसका प्राचीन नाम सुप्रतिष्ठान या प्रतिष्ठानपुर भी था-ऋषभपुत्र बाहुबलि का पोदनपुर भी संभवतया यही था, और भ० महावीर का यहाँ समवसरण आया था। अन्य अनेक जैन पुराण कथाओं के साथ इस नगर का सम्बन्ध है। (च) अतिशयक्षेत्र एवं कलाधाम इस वर्ग में ऐसे स्थान सम्मिलित हैं जहाँ से प्राचीन एवं मध्यकालीन विपुल जैन पुरातत्त्व एवं कलाकृतियाँ प्राप्त हुई, अथवा जो किसी प्रतिमा, मन्दिर या चमत्कारी अतिशय के कारण तीर्थरूप में प्रसिद्ध हो गये। मथुरा प्रभृति जिन कलाधामों का परिचय पीछे दिया जा चुका है, उन्हें इस वर्ग में सम्मिलित नहीं किया गया है। देवगढ़ देवगढ़ चिरकाल पर्यन्त जैनों का एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। वर्तमान में इस नाम का एक छोटा सा गाँव ललितपुर जिले में बेतवा नदी के कल पर, पहाड़ियों के अन्तिम छोर पर घने जंगल के बीच बसा हुआ है, जो देहली से बम्बई जाने वाली रेलवे के ललितपुर स्टेशन से १९ मील तथा जाखलौन स्टेशन से लगभग ८ मील दक्षिण-पश्चिमोत्तर स्थित है। जंगल में यत्र-तत्र बिखरी हई अनगिनत प्राचीन खण्डित मूर्तियाँ एवं भवनों के प्रस्तर खण्ड कल्पनाशील यात्रियों को इस प्रदेश के अतीत गौरव की मूक गाथा सुनाते हैं। देवगढ़ का प्राचीन चतुष्कोण दुर्ग गाँव के निकट ही एक गोलाकार पहाड़ पर बना हुआ है। पर्वत के ऊपर पहुंचने पर एक भग्न तोरण द्वार मिलता है जो पर्वत की परिधि को आवृत्त करने वाले दुर्गकोट का प्रमुख द्वार प्रतीत होता है। इसे कुंजद्वार भी कहते हैं। इसकी कारीगरी दर्शनीय है। इस द्वार को पार करने पर एक के बाद एक दो जीर्ण कोट और मिलते हैं। इन्हीं दोनों कोटों के भीतर अधिकांश जैनमन्दिर अवस्थित हैं। इन कलापूर्ण प्राचीन देवालयों के कारण ही देवगढ़ की इतनी प्रसिद्धि है। देवगढ़ जिस स्थान में स्थित है वह भूभाग प्राकृतिक शोभा की दृष्टि से अत्यन्त मनोरम एवं अप्रतिम है। दुर्ग को तीन ओर से आवृत्त करती हुई बेतवा ने विन्ध्यपर्वतश्रेणी को काटकर यहाँ कुछ एक अत्यन्त चित्ताकर्षक दृश्य निर्माण किये हैं। दक्षिण दिशा में देवगढ़ दुर्ग की सीढ़ियां नदी के जल को स्पर्श करती हैं। इसी ओर देव मूर्तियों एवं अन्य कलाकृतियों से युक्त कतिपय गुहा मन्दिरों को अपने अंकों में लिए हुए नाहरघाटी एवं राजघाटी स्थित हैं। वैलहाउस, फर्ग्युसन, बरजेस आदि कलामर्मज्ञों ने यह अनुभव किया है कि अपने तीर्थ स्थान एवं सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित करने के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य से पूर्ण स्थलों के चुनने में जैनीजन सदैव बेजोड़ रहे हैं। देवगढ़ इस तथ्य को भली प्रकार चरितार्थ करता है। प्रकृति की सुषमापूर्ण गोद में सुषुप्त देवगढ़ का वैभव आज भी अपनी प्राकृतिक एवं कलात्मक द्विविध सौन्दर्य राशि से दर्शकों की सौन्दर्यानुभूति के लिए अनुपम प्रेरक बना हुआ है। इस स्थान के भग्नावशेषों को देखकर इसमें तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि किसी समय चिरकाल पर्यन्त वह एक सुन्दर सुदृढ़ दुर्ग से युक्त भरापूरा विशाल रमणीक नगर एवं धर्म और संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा होगा । देवगढ़ के अवशेष आज भी प्राचीन भारतीय कला और उसके विकास के अध्ययन के लिए प्रचुर सामग्री प्रदान करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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