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________________ ख - ६ [ २१ संस्थापक, निर्माता और उसका सर्वमहान, प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेश अकबर महान ( १५५६ - १६०५ ई० ) था । न्यायप्रिय, उदारनीति, धार्मिक सहिष्णुता, गुणग्राहकता, वीरों, विद्वानों एवं कलाकारों का समादर आदि गुणों के लिए यह सम्राट प्रसिद्ध है। उसने हिन्दू और जैन तीर्थों पर पूर्णवर्ती सुलतानों द्वारा लगाये गये करों और जजिया कर को समाप्त कर दिया । हिन्दुओं की भाँति अनेक जैन भी राजकीय पदों पर नियुक्त हुए और राज्य मान्य हुए। कट्टर मुल्ला-मौलवियों के प्रभाव से शासन को मुक्त करने के लिए १५७९ ई० में सम्राट ने धर्माध्यक्ष का पद भी स्वयं ग्रहण कर लिया । उसी वर्ष राजधानी आगरा के जैनों ने वहां एक दिगम्बर जैन मन्दिर का निर्माण करके बड़े समारोह के साथ बिम्बप्रतिष्ठा महोत्सव किया । अकबर के राज्यकाल में इस प्रदेश में लगभग दो दर्जन जैन साहित्यकारों एवं कवियों ने साहित्य सृजन किया, कई प्रभावक जैन सन्त हुए, यत्र-तत्र जिन मन्दिरों का निर्माण हुआ, जैन तीर्थयात्रा संघ चले, और जैन जनता ने कई शतियों के पश्चात पुनः धार्मिक संतोष एवं शान्ति की सांस ली। स्वयं सम्राट ने प्रयत्न पूर्वक तत्कालीन जैन गुरुओं से सम्पर्क किया और उनके उपदेशों का लाभ उठाया । उसके आमन्त्रण पर आचार्य हीरविजयसूरि १५८२ ई० में गुजरात से चलकर आगरा पधारे । सम्राट ने धूमधाम के साथ उनका स्वागत किया और उनकी विद्वत्ता एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें 'जगद्गुरु' की उपाधि दी । विजयसेनगणि ने अकबरी दर्बार में 'ईश्वर कर्त्ता हर्त्ता नहीं है' विषय पर भट्टनामक ब्राह्मण पंडित को शास्त्रार्थ में पराजित करके बादशाह से 'सवाई' उपाधि प्राप्त की । यति भानुचन्द्र सूर्य-सहस्रनाम की रचना करके 'पातशाह अकबर जलालुद्दीन सूर्य-सहस्रनामाध्यापक' कहलाए और अपने फारसी भाषा के ज्ञान के लिए सम्राट से 'खुशफहम' उपाधि प्राप्त की । उनके निवेदन पर बादशाह ने अपने नीरोग होने की खुशी में की जाने वाली कुर्बानी को बन्द करवा दिया था । इसी प्रकार मुनि शान्तिचन्द्र के उपदेश से सम्राट ने ईदुज्जुहा (बकरीद) पर होने वाली कुर्बानी बन्द करा दी थी। मुनिजी ने कुरान की आयतों तथा मुसलमानों के अन्य अनेक धर्मग्रंथों के आधार से शाही दर्बार में यह सिद्ध कर दिया था कि 'कुर्बानी का मांस और रक्त ख़ुदा को नहीं पहुंचता, वह रहीमुलरहमान इस हिंसा से प्रसन्न नहीं होता, बल्कि परहेजगारी से प्रसन्न होता है, रोटी और शाक खाने से ही रोजे कबूल होते हैं ।' बीकानेर के निर्वासित राज्यमंत्री कर्मचन्द बच्छावत की प्रेरणा से खम्भात के मुनि जिनचन्द्र सूरि को सम्राट ने आमन्त्रित किया। मुनि जी ने 'अकबर - प्रतिबोधरास' लिखा और 'युगप्रधान ' उपाधि प्राप्त की । उनके साथ उनके कई शिष्य साधु भी आये थे । मुनि पद्मसुन्दर ने बादशाह के लिए 'अकबर शाही श्रंगारदर्पण' की रचना की। कहा जाता है कि जब शाहजादे सलीम के घर मूलनक्षत्र में कन्या का जन्म हुआ तो ज्योतिषियों ने उसे बड़ा अनिष्टकर बताया । बादशाह ने अपने प्रमुख आमात्यों से परामर्श करके कर्मचन्द बच्छावत को जैनधर्मानुसार ग्रहशान्ति का उपाय करने का आदेश दिया । अस्तु, चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन स्वर्ण रजत कलशों से तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा का बड़े समारोहपूर्वक अभिषेक और शान्ति-विधान किया गया। अनुष्ठान की समाप्ति पर सम्राट अपने पुत्रों एवं दरबारियों सहित वहां आया, अभिषेक का गन्धोदक विनयपूर्वक मस्तक पर चढ़ाया, अन्तःपुर में बेगमों के लिए भी भिजवाया, और उक्त जिन मन्दिर को दस सहस्र मुद्राएँ भेंट कीं । सम्राट अकबर ने गुजरात आदि प्रान्तों के सूबेदारों को इस आशय के फरमान भी जारी किये कि मेरे राज्य में जैनों के तीर्थों, मन्दिरों और मूर्तियों को जो तनिक भी क्षति पहुंचायेगा वह भीषण दण्ड का भागी होगा । उसने जैन तीर्थों को राज्यकर से मुक्त किया, खम्भात की खाड़ी में मछलियों के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाया, अष्टान्हा के जैन पर्व में अमारि घोषणा की, वर्ष में सब मिलाकर डेढ़-पौने दो सौ दिनों में सम्पूर्ण राज्य में पशुबध बन्द किया, गोरक्षा को प्रोत्साहन दिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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