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________________ २० ] में अपेक्षाकृत अत्यधिक सुकाल था, चीजें सस्ती थीं और प्रजा में सुख-शान्ति थी, किन्तु वह अपने धर्म का कट्टर पक्षपाती और हिन्दू, जैन आदि के प्रति असहिष्णु भी था। मथुरा आदि के मन्दिरों को तोड़कर उसने उनके स्थान में मसजिदें भी बनवाई थीं। विचिन्न संयोग है कि उसी युग में, १४९०-१४९२ ई० में एक राजस्थानी जैन धनकुबेर शाह जीवराज पापड़ीवाल ने दिल्लीपट्टाधीश भट्टारक शुभचन्द्र के उत्तराधिकारी आचार्य जिनचन्द्र से अनगिनत जिन-प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित कराई थीं और छकड़ों में उक्त प्रतिमाओं को भरकर वह सेठ तथा उसके गुरु एक विशाल संघ के साथ समस्त जैनतीर्थों की यात्रा को निकले थे। मार्ग में पड़ने वाले प्रत्येक जिनमन्दिर में वे यथावश्यक प्रतिमाएँ पधराते गये थे। जहां कोई मन्दिर नहीं था वहां नवीन चैत्यालय स्थापित करते गये । आज भी उत्तर प्रदेश के प्रायः प्रत्येक दिगम्बर जैन मन्दिर में एक या अधिक श्वेत संगमर्मर की प्रतिमाएं वि० सं० १५४८ (१४९१ ई०) में शाहजीवराज पापड़ीवाल के लिए उक्त भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठत पाई जाती हैं। प्रायः उसी युग में, दूसरी ओर कई जैन सन्तों ने सूधारक आन्दोलन उठाये, जिनमें मध्य प्रदेश के तारणस्वामी का तारणपंथ, गुजरात में कड़वाशाह का श्रावकपंथ और लौंकाशाह का लौकागच्छ, जो कालान्तर में स्थानकवासी सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हआ, प्रमुख थे। ये नवीन जैन पंथ अधिकांशतः साधुमार्गी थे और मूर्तिपूजा एवं मन्दिरों का विरोध करते थे। उत्तर प्रदेश में इन पंथों का जो कुछ थोड़ा सा प्रभाव हुआ, वह तत्काल नहीं, बहुत पीछे हुआ। प्रायः इसी काल में हथिकन्त (हस्तिकांत)-शौरिपुर में नन्दिसंघ के दिगम्बर भट्टारकों की गद्दी स्थापित हुई । उक्त दोनों स्थान आगरा जिले में हैं और उन दोनों में ही उक्त पट्ट के पीठ थे । इस पट्ट में क्रमशः ललित कीर्ति, धर्मकीति (१५५४ ई०), शील भूषण, ज्ञानभूषण (१६३० ई.), जगतभूषण, विश्वभूषण (१६६५ ई०), देवेन्द्रभूषण (१६७७ ई०), सुरेन्द्र भूषण (१७०३-३४ई०), जिनेन्द्र भूषण (१७७१ ई०), महेन्द्र भूषण (१८१८ ई०), राजेन्द्र भूषण (१८६३ ई०), और हरेन्द्र भूषण (१८८८ ई०) नाम के भट्टारक १६वीं शती के प्रारम्भ से १९वीं के अन्त पर्यन्त हुए । इन भट्टारकों ने शौरिपुर आदि तीर्थों का संरक्षण एवं प्रभावना तो की ही, अपने पीठ को एक उत्तम सांस्कृतिक एवं ज्ञान केन्द्र बनाये रक्खा और स्वयं तथा अपने अनेक त्यागी एवं गृहस्थ शिष्यों से पर्याप्त साहित्य की रचना भी कराई। प्रायः पूरी आगरा कमिश्नरी (वर्तमान) के जैन जन उनके सीधे प्रभावक्षेत्र में थे, उत्तर प्रदेश के शेष भाग में दिल्ली के विभिन्न पदों से सम्बन्धित भट्रारकों और यतियों की आमनायें चलती थीं। पूर्व मुगलकाल या मध्ययुग के पूर्वार्ध के मुनियों, भट्टारकों, यतियों, ब्रह्मचारियों आदि जैन साध-सन्तों ने प्राकृत और संस्कृत जैसी प्रतिष्ठित भाषाओं को छोड़कर अपभ्रंश तथा उससे बिकसित हई देशभाषा हिन्दी को अपने उपदेशों एवं रचनाओं का माध्यम बनाया और इस प्रकार न केवल हिन्दी के प्रारम्भिक विकास को प्रोत्साहन दिया वरन आने वाली शताब्दियों के गहस्थ जैन कवियों एवं साहित्यकारों का मार्ग भी प्रशस्त किया। उन्होंने अपनी धर्मसंस्था में समयानुकूल परिवर्तन भी किये, साम्प्रदायिक नैमनस्य (हिन्दू-मुस्लिम आदि) को कम करने में योग दिया, अपने प्रभाव से जनता एवं कभी-कभी शासकों को प्रभावित करके अपने धर्म और संस्कृति की सुरक्षा की, जनता में स्फूर्ति, धर्मभाव एवं नैतिकता को सजग बनाये रखने में योग दिया। तथापि आतताइयों की कुदष्टि से अपनी बहूबेटियों की रक्षा करने के लिए परदा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, सती, छूतछात, जातिपाँति की कठोरता आदि कुप्रथाएँ भी सामान्य हिन्दुओं की भाँति जैन समाज में भी घर करती गईं। १५२६ ई० में पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी को हराकर मुगल बादशाह बाबर ने आगरा और दिल्ली पर अधिकार किया और मुगल राज्य की नींव डाली। किन्तु इतिहास प्रसिद्ध मुगल साम्राज्य का वास्तविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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