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सो जयइ जस्स केवलणाणुज्जलदप्पणम्मि लोयालोयं । पुढ पदिबिबं दीसई वियसिय, सयवत्त गम्भगउरो वीरो ॥
-गुणधराचार्य
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आतिथ्य - रूपमासरं महावीरस्य नग्नहु । रूप मुपसदामेतत्तिस्रो रात्रीः सुरासुता ॥
-यजुर्वेद, अ. १९, मं. १४ निगंठो आवुसो नातपुत्तो सव्वजु सव्वदरस्सी। अपरिसेसे गाण दस्संण परिजानाति ॥
-मज्झिमनिकाय, भा-१ एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोइ घाइ कम्ममलं। पणमामि वड्ढमाणं तित्थं-धम्मस्सकत्तारं ॥ वीरं विसाल णयणं रत्तुप्पल कोमलस्समप्पायं । तिविहेण पणमिऊण सील गुणाणं णिसामेह ॥ तिलोए सव्वजीवाणंहिदं धम्मोवदेसिणं । वड्ढमाणं महावीरं वंदित्ता सव्ववेदिणं ॥
जिनके केवल ज्ञान रूपी उज्जवल दर्पण में लोकालोक स्पष्ट प्रतिबिंबित हुए दीखते है और जो स्वयं विकसित कमल-गर्भ के समान:तप्त वर्णाभ हैं, वे वीर भगवान जयवन्त हों।
अतिथि स्वरूप पूज्य मासोपवासी नग्न (दिगम्बर) महावीर की उपासना करो, जिसमें (संशय-विपर्ययअनध्यवसाय रूप) तीन अज्ञान, अथवा (धन-शरीर-विद्या रूप) मदत्रय की उत्पत्ति नहीं होती।
अयुष्मान निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र (भगवान महावीर) सर्वज्ञ ओर सर्वदर्शी हैं। अपने अपरिशेष (अनन्त) ज्ञानदर्शन द्वारा वह सब कुछ जानते-देखते हैं। सुर, असुर और मनुष्यों के इन्द्रों (राजाओं) से वन्दनीय, धातिया कर्म रूपी मल को धोकर नष्ट कर दिया जिनने और जो धर्म रूपी तोर्थ के कर्ता हैं, उन श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ। (बाह्य में) जिनके विशाल नेत्र हैं और चरण लाल कमल जैसे कोमल हैं, (अन्तरंग में) जो केवल ज्ञान रूपी विशाल नेत्रों के धारक हैं और जिनकी रागद्वेष रहित कोमल वाणी रागद्वेष को दूर करने वाली है, शील गुणों की प्राप्त्यर्थ उन श्री वीर प्रभु को मन-वच-काय से प्रणाम करता हूँ। तीनों लोकों के समस्त जीवों का हित करने वाले धर्मोपदेशक सर्वज्ञ वर्द्धमान महावीर की वन्दना करता हूँ।
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