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________________ भगवान महावीर की अहिंसा -आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी यत्खलु कषाय योगात्प्राणानां-द्रव्यमावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ (श्री अमृतचन्द्र सूरि) कषाय के योग से जो द्रव्य और भावरूप दो प्रकार के प्राणों का घात करना है वह सुनिश्चित ही हिंसा कहलाती है अर्थात अपने और पर के भावप्राण और द्रव्य प्राण के घात की अपेक्षा हिंसा के चार भेद हो जाते हैं। स्वभाव हिंसा-जब क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति होती है तब स्वयं के शुद्ध ज्ञान दर्शन रूप भाव प्राणों का घात होता है यह स्वभावहिंसा है। स्वद्रव्य हिंसा-कषायों की तीव्रता से, दीर्घ श्वासोच्छ्वास से, हस्तपादादि से अपने अंग को कष्ट पहुंचाना अथवा आत्मघात कर लेना, अपने द्रव्य प्राणों के घात से यह द्रव्य हिंसा कहलाती है। पर भाव हिंसा-धर्मवेषी कुवचन आदि से दूसरे के अन्तरंग में पीड़ा पहुंचाना अथवा दूसरे को कषाय उत्पन्न कराना पर के भावों की हिंसा है। पर द्रव्य हिंसा:-कषायादि से पर के द्रव्य प्राणों का घात करना या उसको मार देना पर के प्राणों का हनन करने से यह पर द्रव्य हिसा है। अहिंसा:-अपने से राग द्वेष आदि भावो का प्रकट न होना ही निश्चय से अहिंसा है और रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है, ऐसा जैन सिद्धांत का सार है। क्योंकि सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले साधुओं के रागादि भावों के बिना कदाचित किसी प्राणी को बाधा हो जाने मात्र से ही हिंसा का पाप नहीं लगता है। तथा जिस समय आत्मा में कषायों की उत्पत्ति होती है, उसी समय आत्मघात हो जाता है, पीछे यदि अन्य जीवों का घात हो या न हो, वह घात तो उसके कर्मों के आधीन है। परन्तु आत्मघात तो कषाओं के उत्पन्न होते ही हो जाता है। इस हिंसा के विषय में अन्य भी चार बातें ज्ञातव्य हैं-हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल । हिस्य-जिनकी हिंसा की जावे ऐसे अपने अथवा अन्य जीवों के द्रव्य प्राण और भाव प्राण, अथवा एकद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्राणी समुदाय । हिसक-हिंसा करने वाला जीव । हिंसा-हिंस्य-जीवों के प्राणों का प्रीणन अथवा प्राणों का घात । हिंसाफल-हिंसा से प्राप्त होने वाला नरक निगोद आदि फल । इन चारों बातों को समझकर हिंसा का त्याग करने की भावना करने वालों का कर्तव्य है कि वे मद्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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