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________________ जे एगं जाणइ, ये सब्वं जाणइ । जे सब्वं जाणइ से एगं जाणई। उसी ने कहा है एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावा सर्वथा तेन दृष्टाः । ___ सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।। --(प्र. श्रुतस्कंध, ३ अ., ४ उ., १२२) ऐसा कौन हिन्दू है जो आत्म-तत्व के ज्ञान को गौण समझे? न्यायकोष के अनुसार शुद्धात्मतत्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते । सांख्यकारिका के भाष्यकार ने कहा है वृक्षान् छित्वा पशून हत्वा कृत्वा रूधिर कर्दम् । यद्योगं गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ॥ (२-माठर भाष्य) आचार्य हरिभद्र ने अपने 'योगदृष्टि समुच्चय' में जिस सुन्दरता के साथ योग के महत्व का प्रतिपादन किया है वह हरेक हिन्दू के लिए अनमोल है। योग का अर्थ प्रायः ध्यान है। जैन दर्शन के अनुसार बिना ध्यान के ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। हेमचन्द्र ने 'योग शास्त्र' में तथा योगविजयसूरि ने 'द्वानिशिका' में पंतजलि, योगवशिष्ट तथा तैत्तिरीय उपनिषद् की यौगिक क्रियाएं भी दी हैं। हिन्दू ग्रन्थ 'योगसार' ने जो लिखा है वह जैनी भी स्वीकार करेंगे। धर्म का लक्षण ही प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा तथा स्मरण (जैनी सामायिक) है। योगसार के अनुसार प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोऽथ धारणा । स्मरणं चैव योगेऽस्मिन पञ्च धर्माः प्रकीर्तिताः ।। फिर जब इतना मेल है जैन तथा हिन्दू विचारधारा में, तो हिन्दू जैनी से भेदभाव क्यों करें ? वह मूर्खता का युग तो चला गया जब हम जैनी मन्दिर में जाना भी पाप समझते थे। वह मूर्खता तो समाप्त हुई। पर दूसरी मूर्खता भी समाप्त होनी चाहिए कि हम एक दूसरे को भिन्न समझें। जैन धर्म नास्तिक नहीं है। जीव की सत्ता में विश्वास करने वाला नास्तिक हो नहीं सकता। झगड़ा इतना ही है कि एक ही आत्मा सब में व्याप्त है या सब आत्मा अलग-अलग हैं। जब हम निश्चय रूप से नहीं कह सकते कि ईश्वर है तो कैसे निश्चित रूप से कह दें कि आत्मा एक है। सन्त कबीर ने कहा है मारी कहूँ तो बहु डाँ, हल्का कहूं तो झूठ । मैं का जानूं राम को, नैना कबहूं न दीठ ॥ जैनधर्म कहता है कि आशा-निराशा के चक्कर में न पड़ो। निष्क्रिय-निराश न होकर आगे बढ़ो। यही बात तो अष्टावक्र अपनी गीता में कह गये हैं कि जो आशा के दास होते हैं, वे दुनिया भर के दास हो जाते हैं। जो आशा को दासी बना लेते हैं वे संसार के स्वामी बन जाते हैं आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य । आशा येषां दासी तेषां दासायते लोकः ।। अस्तु, मेरा तात्पर्य केवल इतना ही है कि हमने जैन धर्म को समझने की चेष्टा नहीं की। इसीलिए हम अच्छे हिन्दू नहीं बन पा रहे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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