SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ख - ४ [ १५ न्द्रियपूर्वक होते हैं। अन्त का अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष है, क्योंकि वह इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न करके आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होता है । विद्यानन्द ने 52 इन प्रत्यक्ष भेदों का विशदता और विस्तार पूर्वक निरूपण किया है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष के आरम्भ में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं। ये चारों पाँच इन्द्रियों और बहु आदि बारह अर्थ भेदों के निमित्त से होते हैं। व्यंजनावग्रह चक्षु और मनसे नहीं होता, केवल चार इन्द्रियों से बहु बहु आदि बारह प्रकार के अर्थों में होता है । अतः ४ X १२५ = २४० और १४१२४ = ४८ कुल २८८ इन्द्रिय प्रत्यक्ष के भेद हैं। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के ४१२ x १४८ भेद हैं। इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष ये दोनों मतिज्ञान अर्थात् संव्यवहार प्रत्यक्ष हैं। अतएव संव्यवहार प्रत्यक्ष के कुल ३३६ भेद है अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के दो भेद हैं१. विकल प्रत्यक्ष और २. सकल प्रत्यक्ष विकल प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है—१. अवधिज्ञान और २. मन:पर्ययज्ञान | सकल प्रत्यक्ष मात्र एक ही प्रकार का है और वह है केवल प्रत्यक्ष इनका विशेष विवेचन प्रमाणपरीक्षा से देखना चाहिए। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रमाण के मूलतः प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद माने गये हैं । 1 प्रमाण का विषय — जनदर्शन में यतः वस्तु अनेकान्तात्मक है, अतः प्रत्यक्ष प्रमाण हो, चाहे परोक्ष प्रमाण सभी सामान्य विशेषरूप, द्रव्य-पर्यायरूप, भेदाभेदरूप, नित्यानित्यरूप आदि अनेकान्तात्मक वस्तु को विषय करते अर्थात् जानते हैं। कोई भी प्रमाण केवल सामान्य मा केवल विशेष आदि रूप वस्तुको विषय नहीं करते, क्योंकि वैसी वस्तु ही नहीं हैं । वस्तु तो अनेकान्तरूप है और वही प्रमाण का विषय है54 । प्रमाण का फल - प्रमाण का फल अर्थात् प्रयोजन वस्तु को जानना और उसका अज्ञान दूर होना है । यह प्रमाण का साक्षात्फल है। वस्तु को जानने के उपरान्त उसके ग्राह्य होने पर उसमें ग्रहण बुद्धि, हेय होने पर हेयबुद्धि और उपेक्षणीय होने पर उपेक्षा बुद्धि होती है । ये बुद्धियाँ उसका परम्परा फल हैं । प्रत्येक प्रमाताको ये दोनों फल उपलब्ध होते हैं । नय पदार्थों का यथार्थज्ञान जहाँ प्रमाण से अखण्ड (समग्र) रूप में होता है, वहाँ नय से खण्ड (अं) रूप में होता है। धर्मी का ज्ञान प्रमाण और धर्म को ज्ञान नय हैं। दूसरे शब्दों में वस्वंशग्राहीज्ञान नय है। यह मूलतः दो प्रकार का है- १. प्रत्याधिक और २. पर्यायायिक अथवा १. निश्चय और २. व्यवहार द्रव्यार्थिक द्रव्य को पर्यायायिक पर्याय को निश्चय अमयोगी को और व्यवहार संयोगी को ग्रहण करता है। इन मूल नयों के अवान्तर भेदों का निरूपण जैन शास्त्रों में विपुलमात्रा में उपलब्ध होता है। वस्तु को सही रूप में जानने के लिए उनका सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । विस्तार के कारण वह यहाँ नहीं किया जाता । यहाँ हमने जैन न्याय का संक्षेप में परिशीलन करने का प्रयास किया है। यों उसके विवेचन के लिए एक पूरा ग्रन्थ अपेक्षित है। - 1, 2, 3, न्याय दी. टि. पृ. ५, वीरसेवामन्दिर प्रकाशन 4. वही पृ० ५ 5. षटखं १।१।१५ 6. नियमसा०, गा १०, ११, १२ 7. त. सू. १९१० 8. आप्त मी. १०१ Jain Education International 9. 10. 11. 12. प्रमाणनिर्णय, पृ० १ ० न० त० १२ 13. प्र० मी० १।१।२ लघीय. का. ६० प्रमाणप० पृ० ४, वीरसेवामंदिर ट्रस्ट प्रकाशन परी० मु० १-११ 14. श्या० दी० पृ० ९ 15. 'तत्प्रमाणो', 'आये परोक्षम्', 'प्रत्यक्षमन्यत् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy