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________________ १४ ] ख-४ धर्मभूषण ने40 स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानुमान के सम्पादक तीन अङ्गों और दो अङ्गों का भी प्रतिपादन किया है। वे तीन अङ्ग हैं-१. साधन, २. साध्य और ३. धर्मी। साधन तो गमकरूप अङ्ग है, साध्य गम्यरूप से और धर्मी दोनों का आधार रूप से। दो अङ्ग हैं-पक्ष और हेतु। जव साध्य धर्म को धर्मी से पृथक नहीं माना जाता-उससे विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहा जाता है, तो पक्ष और हेतु ये दो ही अङ्ग विवक्षित होते हैं। इन दोनों प्रतिपादनों में मात्र विवक्षाभेद है-मौलिक कोई भेद नहीं है। वचनात्मक परार्थानुमान के प्रतिपाद्यों की दृष्टि से दो, तीन, चार, और पांच अवयवों का भी कथन किया गया है। अवयव प्रतिज्ञा और हेतु हैं। उदाहरण सहित तीन, उपनय सहित चार और निगमन सहित वे पांच अवयव हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि विद्यानन्द ने परार्थानुमान के अक्षरभुत और अनक्षरश्रुत दो भेदों को प्रकट करते हुए उसे अकलङ्क के अभिप्रायानुसार श्रुतज्ञान बतलाया है और स्वार्थानुमान को अभिनिबोध रूप मतिज्ञान विशेष कहा है। आगम की प्राचीन परम्परा यही है421 श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्त रायकर्म के क्षयोपशम विशेषरूप अन्तरंग कारण तथा मतिज्ञानरूप बहिरंग कारण के होने पर मन के विषय को जानने वाला जो अविशद ज्ञान होता है वह श्रतज्ञान है43 । अथवा आप्तके वचन, अंगुली आदि के संकेत से होने वाला अस्पष्ट ज्ञान श्रुत है । यह श्रुतज्ञान सन्ततिकी अपेक्षा अनादि निधन है। उसकी उत्पादक सर्वज्ञ परम्परा भी अनादिनिधन है । वीजाङकुरसन्तति की तरह दोनों का प्रवाह अनादि है । अतः सर्वज्ञोक्त वचनों से उत्पन्न ज्ञान श्रतज्ञान है और वह निर्दोष पुरुषजन्य एवं अविशद होने से परोक्ष प्रमाण है। . प्रत्यक्ष-जो इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि परकी अपेक्षा नहीं रखता और आत्ममात्र की अपेक्षा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है44 । अकलङ्कदेवने 45 इस लक्षण को आत्मसात् करते हुए भी एक नया लक्षण और प्रस्तुत किया है, जो दार्शनिकों द्वारा अधिक ग्राह्य और लोकप्रिय हुआ है। वह है विशद ज्ञान । जो ज्ञान विशद अर्थात अनुमानादिज्ञानों से अधिक विशेष प्रतिभासी होता है वह प्रत्यक्ष है। उदाहरणार्थ-'अग्नि है' ऐसे किसी विश्वस्त व्यक्ति के वचन से उत्पन्न अथवा वहाँ अग्नि है, क्योंकि धुआं दिख रहा है। ऐसे धमादि साधनों से जनित 'अग्निज्ञान' से 'यह अग्नि है' अग्नि को देखकर हुए अग्निज्ञान में जो विशेष प्रतिभासरूप वैशिष्ट्य अनुभव में आता है उसी का नाम विशदता है और यह विशदता ही प्रत्यक्ष का लक्षण है । तात्पर्य यह कि जहाँ अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है वहाँ स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष के भेद--प्रत्यक्ष के भेदों का निर्देश सर्वप्रथम आचार्य गद्धपिच्छने46 किया है। उन्होंने बतलाया है कि प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है-१. अवधिप्रत्यक्ष, २. मन:पर्ययप्रत्यक्ष और और ३. केवल प्रत्यक्ष । पूज्यपादने47 इन्हें दो भेदों में बांटा है-१. देशप्रत्यक्ष और २. सर्वप्रत्यक्ष । अवधि और मनःपर्यय ये दो प्रत्यक्षज्ञान58 मुस्तिक पदार्थ को ही जानने के कारण देश प्रत्यक्ष हैं और केवल प्रत्यक्ष69 मूत्तिक और अमूत्तिक सभी पदार्थों को विषय करने से सर्वप्रत्यक्ष है। किन्तु तीनों ही आत्ममात्र को अपेक्षा से होने और इन्द्रियादि परकी अपेक्षा से न होने तथा पूर्ण विशद होने से प्रत्यक्ष हैं। अकलंकदेव ने50 आगम की इस परम्परा को अपनाते हए भी उसमें कुछ मोड़ दिया है। उन्होंने प्रत्यक्ष के मुख्य और संव्यवहार के भेद से नये दो भेदों का प्रतिपादन किया है। लोक में इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है। पर जैन दर्शन उन्हें परोक्ष मानता है। अकलक ने प्रत्यक्ष का एक संव्यवहार भेद स्वीकार कर उसके द्वारा उनका संग्रह किया और व्यवहार (उपचार) से उन्हें प्रत्यक्ष कहा । इस प्रकार उन्होंने आगम और लोक दोनों दृष्टियों में सुमेल स्थापित कर उनके विवाद को सदा के लिए शान्त किया। एक दूसरे स्थान पर उन्होंने51 प्रत्यक्ष के तीन भी भेद बतलाये हैं-१. इन्द्रिय प्रत्यक्ष, २. अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और ३. अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष । प्रथम के दो प्रत्यक्ष संव्यवहार प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे इन्द्रिय पूर्वक व अनि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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