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________________ भी फैले हुए थे । आचार्य सिद्धसेन भी उत्तर प्रदेश में विचरे प्रतीत होते हैं, ७वीं शती में आचार्य मानतुंग और ८वीं-९वीं शती में बप्पभट्टिसूरि उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध जैन सन्त थे। देवगढ़ के आचार्य कमलदेव और श्रीदेव भी ९वीं शती के प्रभावक सन्त थे। मथुरा में ११वीं शती में जिनदेवसूरि, भावदेवसूरि और आचार्य विजयसिंह द्वारा (१०२३ ई०) में बिंब प्रतिष्ठा आदि धर्मकार्य कराने के उल्लेख हैं। __ इसके उपरान्त मुस्लिम शासनकाल में उत्तर प्रदेश में जैन सन्तों का निवास एवं विहार विरल होता चला गया । दिगम्बर मुनि तो इस काल में अधिकांशतः वस्त्रधारी भट्टारक होने लगे और स्थानविशेषों में अपनी गद्दियां स्थापित करके उनके माध्यम से साहित्य सृजन, शिक्षा, मन्दिर-मूर्ति निर्माण एवं प्रतिष्ठा, पूजा-अनुष्ठान करने कराने लगे और गृहस्थजनों को धार्मिक लाभ पहुँचाने लगे। श्वेताम्बरों में भी उन्हीं की भांति मठाधीश यतियों एवं श्रीपज्यों की संस्था विकसित हुई। १४वीं शती में ही दिल्ली में दिगम्बर परम्परा के नन्दि, सेन और काष्ठासंघ की तथा श्वेताम्बर खरतर गच्छ की गद्दियां स्थापित हो चुकी थीं। दिल्ली को केन्द्र बनाकर ये भट्टारक एवं यति पूरे उत्तर प्रदेश में गमनागमन करके श्रावकों को धर्मलाभ देते थे। उसी शती में उत्तर प्रदेश में विचरण एवं धर्म कार्य करने वाले जैन सन्तों में भट्टारक माधवसेन, प्रभाचन्द्र एवं पद्मनन्दि के तथा आचार्य जिनप्रभसूरि के नाम उल्लेखनीय हैं। १५वीं शती में हुए तारणस्वामी इस प्रदेश के बुन्देलखण्ड में बिचरे प्रतीत होते हैं और १६वीं शती में आगरा जिले के शौरिपुर-हथकन्त अटेर में दिगम्बर भट्टारकों का प्रसिद्ध पट्ट स्थापित हुआ, जो वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ तक चलता रहा, और जिसमें अनेक धर्मप्रभावक सन्त हुए। उसी शती में मुगल सम्राट अकबर के निमन्त्रण पर गुजरात के आचार्यप्रवर हीर विजयसूरि, जिन्नचन्द्र, शान्तिचन्द्र आदि अनेक जैन संत आगरा पधारे और उत्तर प्रदेश में बिचरे। १७वीं शती के प्रारम्भ में चन्दवाड के ब्रह्मगुलाल मुनि तथा उसके मध्य के लगभग शीतल मुनि नाम के दिगम्बर सन्त इस प्रदेश में विचर रहे थे। शीतलमुनि आगरा भी आये और अयोध्या में १६४७ ई० में उनका समाधिमरण हआ। बाद की दो शताब्दियां अराजकता काल की थीं, उस काल में किसी उल्लेखनीय जैन साधु के इस प्रदेश में निवास करने या विचरने का पता नहीं चलता। भट्टारकों के उपशाखापट् बाराबंकी, कांधला आदि कई स्थानों में थे तथा जिनकुशलसूरि प्रभृति कतिपय यतियों के लखनऊ आदि कुछ स्थानों से सम्बद्ध होने के प्रमाण मिलते हैं। आधुनिक युग में, लगभग १८५० ई० से वर्तकान पर्यन्त अनेक ब्रह्मचारी, वर्णी, क्षुल्लक, ऐल्लक, दिगम्बर मनियों एवं आयिकाओं का तथा स्थानकवासी साध-साध्वियों का इस प्रदेश के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। इन संतों ने जनता में धार्मिक भावना जागृत करने, उसका नैतिक उन्नयन करने में अपने-अपने ढंग से योग दिया है। गत शताब्दी में अलीगढ़ के आध्यामिक सन्त त्यागी बाबा दौलतराम, कांधला के सन्त एवं भक्त कवि जयनानन्द (नैनसुखदास), आगरा के महाप्रभावक स्थानकवासी मुनि रत्नचन्द्र और मेरठ के महातपस्वी सिद्ध बाबा - लालमनदास हुए। वर्तमान शताब्दी में दिवंगत हुए प्रदेश के जैन सन्तों में उल्लेखनीय हैं महमूदाबाद (जिला सीतापुर) के ब्रह्मचारी भगवानसागर जो लखनऊ में कई वर्ष रहे और शिक्षा एवं साहित्य के प्रचार में योग देते रहे । काशी के आचार्य विजयधर्मसूरि जो व्याख्यान वाचस्पति, नवयुग प्रवर्तक एवं शास्त्र विशारद जैसे विरुदधारी थे । स्थानकवासी सन्त भरताजी (भरतमुनि) जो बड़े सरल स्वभावी साधु थेस्व० मुनि लालचन्द और सुखानन्द उनके शिष्य थे और वह स्वयं मुनि रत्नचन्द के शिष्य थे। पण्डापुर-मथुरा में जन्मे बाबा भागीरथ वर्णी (१८६८-१९४२ ई०) बड़े सरल परिणमी निर्भीक त्यागी, निस्पृही एवं शिक्षाप्रेमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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