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________________ +ADEMY गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए अब्भुट्ट्यव्वंभवइ रोगी जनों को निरोग करने के लिए उनको सेवा सुश्रुषा परिचर्या उत्साह एवं तत्परता के साथ करनी चाहिये। समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलब्भई जो दूसरों को सुख देने का प्रयत्न करता है, वह स्वयं भी सुख पाता है । वेयावच्चेण तित्थयरनामगोयं कम्मं निबंधेइ सेवाधर्म का पालन करने से तीर्थकर पद प्राप्त होता है । जो करेइ सो पसंसिज्जइ जो जनसवा करता है, वह प्रशंसित होता है । भमइ जए जसकित्ती सज्जणसुइ-हियय-णयण-सुहजणणी । अण्णेविय होंतिगुणा विज्जावच्चेण इहलोए ॥ सेवा करने से सज्जनों के कानों, नेत्रों और हृदय को सुख देने वाली कीत्ति जग में फैल जाती है तथा अन्य अनेक गुण इस लोक में प्राप्त होते हैं । सव्वं जगं तु समयाणुपेही जगत के सभी प्राणियों को समभाव से देखो । मेत्ति भूएसुकप्पए सभी जीवों के प्रति मित्रता भाव रखो। सव्वपाणा न हीलियम्वा न निदियव्वा किसी भी प्राणी का न तिरस्कार करो, न निंदा करो। जीवोकसायबहुलोसंतो जीवाण घायणं कुणइ अधिकतर लोग क्रोध-मान-माया-लोभ:आदि कषायों से युक्त होते हैं । कषाय से ही हिंसा उत्पन्न होती है। कोहोपोइ पणासइ, माणोविणय णासई। माया मित्ताणि णासइ, लोभो सव्व विणासणे ॥ क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय समाप्त कर देता है, माया (छलकपट) मैत्री की नाशक है और लोभ सर्व विनाशक अहेवयन्ति कोहेण, मानेण अहमागई। __ मायागइ पुडिवग्घाओ, लोहाओ दुहओभयं ॥ क्रोध मनुष्य का पतन करता है, मान उसे अधमगति में पहुंचाता है, माया सद्गति का नाश करती है, और लोभ इसलोक एवं परलोक में महान भय का कारण होता है। Jain Education International www.jainelibrary.org | For Private & Personal Use Only
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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