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________________ [ ३३ जे रत्त लगे कापड़े, जामा होवे पलित्त । जो रत्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चित्त ॥ -गुरु नानकदेव मेरे लिए कितने सुख की बात होती, यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि मांसाहारी लोग केवल मेरे शरीर को ही खाकर संतुष्ट हो जाते, ताकि वे फिर दूसरों को मार कर न खाते । अथवा ऐसा होता कि मेरे शरीर का एक-एक अंश काटकर मांसाहारियों को खिला दिया जाता और वह अंश फिर वापस हो जाता, तो मैं बहुत प्रसन्न होता । उस प्रकार मैं अपने शरीर से ही मांसाहारियों को तृप्त कर सकता। -सम्राट अकबर मांस का प्रचार करने वाले सब राक्षस के समान हैं । वेदों में कहीं भी मांस खाने का उल्लेख नहीं हैं।... शराबी और मांसाहारी के हाथ का खाने में भी मांसादि के खाने-पाने का दोष लगता है। जो लोग मांस और शराब का सेवन करते हैं, उनके शरीर, वीर्य आदि धातु दुर्गन्ध के कारण दूषित हो जाते हैं।"हे मांसाहारियों ! जब कुछ काल पश्चात पशु न मिलेंगे तब तुम मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं ?... गऊ आदि पशुओं का नाश होने से राजा और प्रजा दोनों का नाश हो जाता है । गैगो-रक्षा राष्ट्ररक्षा है। -स्वामी दयानन्द सरस्वती मांस खाना असभ्यता है, धार्मिक जीवन के लिये निरामिष भोजन ही ठीक है। -स्वामी विवेकानन्द क्या मांस खाना अनिवार्य है ? कुछ लोग कहते है कि यह अनिवार्य तो नहीं लेकिन कुछ बातों के लिए जरूरी है। मैं कहता हूं कि यह जरूरी नहीं। जिन लोगों को इस बात पर सन्देह हो, वह बड़े-बड़े विद्वान डाक्टरों की पुस्तकें पढ़ें जिनमें यह दिखाया गया है कि मांस का खाना मनुष्य के लिए आवश्यक नहीं है। मांस खाने से पाशविक प्रवृत्तियां बढ़ती हैं, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और मदिरा पीने की इच्छा होती है। इन सब बातों के प्रमाण सच्चे शुद्ध और सदाचारी नवयुवक हैं । विशेषकर स्त्रियां और जवान लडकियां है जो इस बात को साफ-साफ कहती हैं कि मांस खाने के बाद काम की उत्तेजना और अन्य पाशविक प्रवृत्तियां आप ही आप प्रबल हो जाती हैं । मांस खाकर सदाचारी बनना असम्भव है। हमारे जीवन में सदाचारी और उपकारी जीवन के पहिले जीने की तह में अर्थात हमारे भोजन में इतनी असभ्य और पापपूर्ण चीजें घुस गयी हैं और इस पर इतने कम आदमियों ने विचार किया है कि हमारे लिए इस बात को समझना ही असम्भव हो रहा है कि गोश्त-रोटी खाकर आदमी धार्मिक या सदाचारी कदापि नहीं हो सकता है। गोश्त-रोटी खाते हुए धार्मिक या सदाचारी होने का दावा सुन हमें इसलिए आश्चर्य नहीं होता कि हममें एक असाधारण बात पाई जाती है। हमारी आँख है लेकिन हम देख नहीं सकते, कान है लेकिन हम नहीं सुनते । आदमी बदबूदार से बदबूदार चीज, बुरी से बुरी आवाज और बदसूरत से बदसूरत वस्तु का आदी बन सकता है, जिसके कारण वह आदमी उन चीजों से प्रभावित नहीं होता जिससे कि अन्य आदमी प्रभावित हो जाते हैं। -टाल्स्टाय प्राचीन काल में मनुष्य बड़ी भारी संख्या में शाकाहारी ही थे। (Descent of Man, p. 156) और मैं विस्मित हूं कि ऐसे असाधारण मजदूर मेरे देखने में कभी नहीं आये, जैसे कि चिली (Chili) की कानों में काम करते हैं। वे बड़े दृढ़ और बलवान हैं, और वे सब शाकाहारी हैं। -चार्ल्स डारविन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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