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________________ ४८ ] आये थे जो बाद में 'पोरसनाथ किला' कहलाया। वहां से विहार करके वह उतर पांचाल राज्य की राजधानी पांचालपूरी, अपरनाम परिचक्रा एवं शंखावली, के निकटवर्ती भीमाटवी नामक गहन वन में पहुंचे। जब वह वहां कायोत्सर्ग ध्यान में लीन थे तो शम्बर नामक दुष्ट असुर ने उन पर भीषण उपसर्ग किये । नागराज धरणेन्द्र और यक्षेश्वरी पद्मावती ने उन उपसर्गों के निवारण का यथाशक्ति प्रयत्न किया। नागराज (अहि) ने तो भगवान के सिर के ऊपर छत्राकार सहस्रफण मंडप बनाया था। इसी कारण वह नगरी (पांचालपुरी) भी लोक में 'अहिच्छता' नाम से प्रसिद्ध हई। भगवान को वहीं उसी समय केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उनका समवसरण जुड़ा और उनके धर्मचक्र का प्रवर्तन हुआ। इस प्रकार अहिच्छत्रा जैनों का परम पुनीत तीर्थ बना, और वे उसके दर्शनार्थ बराबर आते रहे, यद्यपि यह स्थान चिरकाल से उजाड़ एनं वनाच्छादित पड़ा हुआ है। प्राचीन मन्दिरों एवं भवनों के भग्नावशेषों के रूप में कई टीले यहां बिखरे पड़े हैं, और एक प्राचीन दुर्ग की प्राचीर के अवशेष भी दृष्टिगोचर होते हैं । कनिंघम, एटकिन्सन, फुहरर, नेविल आदि की रिपोर्टों एवं गजेटियरों से प्रकट है कि इस स्थान के एक जैनतीर्थ होने की तथा भ० पार्श्वनाथ के साथ उसका सम्बन्ध होने की मान्यता मध्यकाल में भी बनी रही और अविच्छिन्न रूप में वर्तमान पर्यन्त चली आई है। इस शताब्दी में हुए पुरातात्त्विक उत्खनन एवं शोध खोज से जहां विविध विपूल सामग्री प्रकाश में आई है वहां उसने यह भी सिद्ध कर दिया कि कम से कम गत दो हजार वर्ष से यह स्थान अहिच्छत्रा नाम से ही प्रसिद्ध रहा है। अनेक जैन पुराण एवं कथा ग्रंथों में अहिच्छता के उल्लेख प्राप्त होते हैं। ई० पू० २री शती के लगभग हुए अहिच्छत्रा के राजा आषाढ़सेन ने अपने भानजे कौशाम्बी के राजा बहसतिमित्र के राज्य में स्थित प्रभासगिरि (प्रभोसा) पर जैन मुनियों के लिए गुफायें बनवाई थी। उसके निकट वंशज राजा वसुपाल ने अहिच्छत्रा में भगवान पार्श्वनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। दूसरी शती ई० में अहिच्छना का राजा पद्मनाभ जैन था और उसी के पुत्रों दद्दिग और माधव ने सुदूर दक्षिण में जाकर मैसूर के प्रसिद्ध गंगराज्य की स्थापना की थी। अहिच्छत्रा के कोत्तरी (कटारी) खेड़ापर प्राचीन जैन मन्दिर और मूर्तियों के अवशेष मिले हैं जिनमें २री शती ई० के एक लेख में 'अहिच्छत्रा' नाम भी स्पष्ट रूप में अंकित है। छठी-सातवीं शती में इसी नगर के पार्श्व जिनालय में अपनी दार्शनिक शंका का समाधान प्राप्त करके ब्राह्मण विद्वान पात्रकेसरि ने सम्यक दष्टि प्राप्त की थी तथा पात्रकेसरि-स्तोत्र की रचना की थी और ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इसी नगर में जैन महाकवि वाग्भट ने अपने नेमिनिर्वाण-काव्य की रचना की थी। चौदहवीं शती में आचार्य जिनप्रभसरि ने इस तीर्थ की यात्रा की थी और उसका वर्णन अपने विविध तीर्थंकल्प के अन्तर्गत अहिच्छन्ना-कल्प में किया था, जिसमें उन्होंने यहां के स्मारकों, अतिशयों, आश्चर्यों और अनुश्रुतियों का उल्लेख किया है। आगरा के पं० बनारसीदास ने १७वी शताब्दी में अहिच्छता की यात्रा की थी और १७४८ ई. में कवि आसाराम ने अहिच्छत्र-पार्श्वनाथस्तोत्र की रचना की थी। इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्व की ज्ञान-कल्याण भूमि, जैनों का पावनतीर्थ, उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन सांस्कृतिक केन्द्र एवं कलाधाम और प्राचीन भारत की एक समृद्ध राजधानी यह अहिच्छना नगरी रही है जो अपने महत्व एवं अवशेषों के लिए आज भी दर्शनीय है। पावानगर उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में स्थित संठियावडीह फाजिलनगर का समीकरण अनेक विद्वान बौद्ध साहित्य में उल्लिखित मल्लों की पापा से करते हैं और कई एक उसे ही भगवान महावीर की निर्वाण भूमि पावा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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