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________________ स- ३ ६] एवं नियति उत्तरोत्तर हीन होती चली गयी। बहु-पश्नीत्व की प्रवृत्ति को जो प्रोत्साहन मिला, विशेषकर ब्राह्मण वर्ग में, जिनका अनुकरण क्षत्रिय एवं वैश्य भी स्वभावतः करने लगे, उससे नारी की दशा में और अधिक पतन हुआ 1 जनतन्त्रात्मक गणों के प्रात्य क्षत्रियों में अवश्य ही सामान्यतया एक पत्नीवाद की प्रथा चलती रही। स्वयं भगवान महावीर के पितामह, पिता तथा अन्य अनेक सम्बन्धी एवं नातेदार एक पत्नीव्रती ही थे । उस काल में कम से कम उत्तर भारत में समाज व्यवस्था पुरुष प्रधान थी पुरुष ही गृहपति एवं परिवार का मुखिया था। उसे अधिकार था कि वह अपनी चल व अचल सम्पत्ति का इच्छानुसार उपयोग करे, चाहे जिसको दे डाले या चाहे जिस प्रकार व्यय करे । वह परिवार की पुत्रियों और विधवा वधुओं को उनके दाय से वंचित भी कर सकता था । विधवा का अपने पति की सम्पत्ति पर कोई वैधानिक अधिकार नहीं था, सिवाय मात्र भरण-पोषण के । विवाह प्रथा व्यापक और प्रायः अनिवार्य हो चली थी। विवाह ने विधिवत् धार्मिक संस्कार का रूप ले लिया था और सम्बन्ध प्रायः दोनों पक्षों के अभिभावकों द्वारा ही निश्चित होते थे। कन्या की तो क्या, वर की सहमति भी शायद कभी ली जाती थी । लोग बहुधा स्वजाति की कन्या के साथ ही, यदि संभव हुआ तो अपने मामा की पुत्री के साथ, विवाह करना पसन्द करते थे। कभी-कभी अन्तर्जातीय और स्त्री-पुरुष द्वारा स्वेच्छा से अपनी पसन्द के भी विवाह सम्बन्ध हो जाते थे। मगधनरेश थे णिक विम्बिसार की कई पत्नियां थीं, जिनमें से एक दक्षिण देशवासी ब्राह्मण कन्या भी थी। राजाओं की वैश्य पलियों और वैश्यपुत्रों की क्षत्रिय या ब्राह्मण पत्नियों के होने के भी उदाहरण मिलते हैं । ब्राह्मण तो किसी भी वर्ण की स्त्री के साथ विवाह करने में स्वतन्त्र था ही वृद्ध और अनमेल विवाह भी होते थे, किन्तु विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध या स्त्रीपुरुष के विवाहबाह्य प्रणय सम्बन्ध निन्दनीय समझे जाते थे, किन्तु जो सम्पन्न और समर्थ थे उपपत्नियाँ भी रखते थे । वेश्यावृत्ति समाज मान्य थी और प्रर्याप्त प्रचलित थी । मगधसुन्दरी, पाली, अनंगसेना, कोशा जैसी अनेक वारवधुएँ या गणिकाएं नगर की शोभा समझी जाती थीं। वे अत्यन्त धन, वैभव, विलास सम्पन्न, प्रतिष्ठित एवं नृत्य, वाद्य, संगीत, चित्र आदि कलाओं में परम निपुण भी होती थीं। राजाओं, राजकुमारों, उच्च पदाधिकारियों और धोष्ठिपुत्रों आदि भद्रलोक के विलास एवं मनोरंजन का वे एक प्रमुख साधन थीं। 1 इस काल में ब्राह्मण पुरोहित धार्मिक गुडस्य के जीवन को नाना विधिविधानों, कर्मकांडों एवं संस्कारों की श्रृंखला में जकड़ता जा रहा था। ये संस्कार आदि गर्भाधान के भी कुछ पूर्व प्रारम्भ हो जाते थे, और व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त ही नहीं उसके उपरान्त भी श्राद्ध, पिण्डदान आदि के रूप में चलते रहते थे । इसमें सन्देह नहीं है कि इन समस्त विधि-विधानों का पूर्णतया पालन तत्कालीन भारतीय समाज का अल्पांश ही करता था अनेक व्यापक पर्व त्योहार, उत्सव आदि लोकप्रिय थे और बहुत करके जीवन को आनन्दमय बनाते थे। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों की समस्त चेष्टाओं के बावजूद भारतीय समाज अभी कूटस्थ, गत्यावरुद्ध एवं निपट रूढ़िग्रस्त नहीं हो पाया था। यह संक्रमण युग परिवर्तनों एवं क्रान्तियों का युग था। सामाजिक जीवन में अभी भी एक स्वस्थ विशालहृदयता, परमतसहिष्णुता, दानशीलता और उदारता परिलक्षित थी। लोग सदाचारी, भले, गुणी, सुविज्ञ एवं शूरवीर व्यक्तियों का सम्मान करने में रस लेते थे और उनके प्रति बड़ा आदरभाव रखते थे । I , वास्तव में, शायद ही किसी अन्य युग और अन्य देश में, समाज के प्रायः सभी वर्गों में ऐसी उत्कट जिज्ञासा तथा दार्शनिकों एवं धर्मोपदेष्टाओं के प्रति ऐसा निष्पक्ष एवं उच्च आदरभाव रहा हो, जैसा कि उस युग के भारत में था, भले ही उक्त धर्मगुरुओं के सिद्धांत कितने ही परस्पर विरोधी अथवा श्रोताओं के स्वमत के विरुद्ध रहते हों। वैदिक परम्परा के कट्टर पक्षपाती पंडितों ने प्रायः इसी युग में वेदों को अन्तिम रूप देकर उन्हें संहिताओं में संकलित किया था और उन पर ब्राह्मण, आरण्यक आदि ग्रन्थों के रूप में क्लिष्ट, दुर्बोध टीकाओं की रचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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