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________________ ख-३ कर डाली थी, जिसके परिणामस्वरूप याज्ञिक क्रियाकाण्ड अत्यन्त व्ययसाध्य, आडम्बरपूर्ण, जटिल और अपरिवर्तनीय बनता चला गया। वैदिक संस्कृति के आद्य युगों में जो पवित्र मन्त्रों का पाठ करने वाले सीधे-साधे ऋषि थे, उनके वंशजों ने स्वयं को अब धर्म पुरोहितों के एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में संगठित कर लिया था। इन धर्माचार्यों ने लोकमानस में यह बात जमा दी थी कि उपयुक्त विधि-विधान, क्रियाकाण्ड, पुरोहित या होता और याज्ञिक सामग्री का संयोग होने पर ही यज्ञ चमत्कारिक रूप में यथेष्ठ फल प्रदाता होता है । ये यज्ञ किसी आध्यात्मिक लाभ या चारित्रिक उन्नयन के प्रयोजन से नहीं किये जाते थे, वरन यश, कीति, मान-बड़ाई, धन-सम्पत्ति का लाभ, पुत्रादि की प्राप्ति अथवा वैयक्तिक शत्रओं का विनाश जैसे लौकिक उददेश्यों को लेकर ही प्रायः यज्ञानुष्ठान किये जाते थे। उत्तर वैदिक काल में तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि और पार्श्वनाथ ने शृमणधर्म पुनुरुद्धार का जो अभियान चलाया था उसका सुफल यह अवश्य हुआ कि अब ऐसे अनष्ठान अपेक्षाकृत विरल हो गये थे और उनमें की जाने वाली याज्ञिक हिंसा, पशुबलि आदि में भी भारी न्यूनता आ गई थी । इसी युग में ब्राह्मणीय स्मृति शास्त्रों का प्राथमिक रूप बना तथा वर्णाशृम धर्म (चातुर्वर्ण्य एवं चतुराम व्यवस्था) के दृढ़ता से पालन करने पर बल दिया जाने लगा। परन्तु तभी, मुख्यतया क्षत्रिय चिन्तकों के नेतृत्व में, एक ऐसा सबल वर्ग भी उदय में आ रहा था जो स्वयं वैदिक परम्परा के आधार से ही याज्ञिक क्रियाकाण्ड एवं पशुबलि का खुला सशक्त विरोध करता था। इस वर्ग ने वैदिक साहित्य में से ही आध्यात्मिकता के बीज खोजकर उपनिषदों के आध्यात्मिक रहस्यवाद का विकास किया। ब्राह्मण परम्परा के सांख्य, योग, वैशेषिक, मीमांसा आदि तथाकथित आस्तिक षड्दर्शनों और चार्वाक के नास्तिक भौतिकवाद का उदय भी प्रायः इसी काल में हुआ। बहुभाग जनता अब भी बौद्धिक दृष्टि से पिछड़ी हुई और अज्ञान ग्रस्त थी, जो स्थानीय या ग्राम्य देवताओं, भूत-प्रेतों, दैत्य-दानवों, आदि की पूजा और तृप्ति करने में संलग्न थी तथा नाना अन्धविश्वासों की शिकार थी। भारतीय चिन्तन एवं संस्कृति की दूसरी महत्वपूर्ण धारा का प्रतिनिधित्व शृमण परम्प रा करती थी, जो वेदों के प्रामाण्य, समाज में ब्राह्मण की सर्वोपरि सत्ता और वर्णाश्रम व्यवस्था को मान्य नहीं करती थी। अहिंसा, त्याग और अपरिग्रह उसके मूल मन्त्र थे और व्यक्ति के चारित्रिक उन्नयन, नैतिक सदाचरण एवं आध्यात्मिक साधना पर वह विशेष बल देती थी। इस काल के शृमण जगत में परम्परा विश्वास के अनुसार अन्तिम तीर्थङ्कर के उदय की प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता के साथ की जा रही थी । परिणामस्वरूप दर्जनों विभिन्न धर्मोपदेष्टा स्वयं उक्त तीर्थङ्कर होने का दावा कर रहे थे और इतस्ततः भ्रमण करते हुए अपने-अपने मन्तव्यों का जनता में प्रचार कर रहे थे तथा लोगों को अपना अनुयायी बना रहे थे। कहा जाता है कि ६३ अथवा ३६३ विभिन्न दार्शनिक वाद या मत-मतान्तर उस समय देश में प्रचलित हो रहे थे, जिन्हें भौतिकवादी, संशयवादी, व्यवहारवादी, भाग्य या नियतिवादी, नित्य या शाश्वतवादी, क्षणिकवादी, क्रियावादी, अक्रियावादी, आदि लगभग आधे दर्जन स्थल भेदों में वर्गीकृत किया जा सकता है । पूरण कस्सप, अजित केसकंबलिन, पकुध काच्चायन, संजय वेलठिपुत्त, मक्खलि गोशा, शाक्यपुत्र गौतम बुद्ध और निर्ग्रन्थ ज्ञात पुत्र वर्धमान महावीर उस काल के श्रमण धर्माचार्यों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे। इनमें से भी प्रथम चार के नाम एवं कतिपय विशिष्ट सिद्धान्तों के अतिरिक्त विशेष कुछ ज्ञात नहीं हैं उनके सम्प्रदाय अत्यन्त अस्थायी रहे प्रतीत होते हैं। मक्खलि गोशाल आजिविक सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे, जो मध्ययुग के प्रारम्भ तक किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा और अन्ततः जैन परम्परा में अतभुक्त हो गया। गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के यशस्वी प्रवर्तक एवं संस्थापक थे और वर्धमान महावीर प्राचीन भारत के चौबीस आईत. जिन शृमण तीर्थङ्करों की शृखला में अन्तिम थे। उन्होंने उक्त तीर्थङ्कर परम्परा के धर्म का पुनुरुद्धार एवं संशोधन किया, मुनि-आयिका-श्रावक-श्राविका रूप चतुविद्य जैन संघ का संगठन किया और परम्परा मान्यताओं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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