________________
ख - ३
[ ५
स्वतन्त्र या राज्य की ओर से उस पर प्राय: कोई बकावट या नियन्त्रण नहीं था क्रय-विक्रय में वस्तु परिवर्तन का स्थान मुद्रित सिक्के ले रहे थे- कई श्रेणियां या निगम स्वयं अपनी मुद्राएं ढालती थीं । हुंडी-परचों का प्रचलन भी होने लगा था। ब्याज पर ऋण देना वैध माना जाता था और लिए हुए ऋण को चुकता करना एक प्रतिष्ठित कर्तव्य समझा जाता था । वचन की साख थी । सामान्यतया प्रत्येक व्यक्ति मन चाहे व्यवसाय में लग सकता था; और श्रमिक वर्ग तो बहुधा किसी व्यवसाय विशेष अथवा स्थान विशेष से बंधा नहीं था; श्रम सचल या देहात में जीवन अत्यन्त सरल, सादा, मितव्ययी एवं श्रमशील था, किन्तु इसके विपरीत नगरों में जीवन तड़क-भड़क, वैभव और विलासपूर्ण थां । वहाँ, विशेषकर समृद्ध जनों का, जीवन स्तर पर्याप्त ऊँचा था । वहाँ ऐसे भी अनेक व्यक्ति दृष्टिगोचर हो सकते थे जो ज्ञान-विज्ञान तथा संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्तिशिल्प, स्थापत्य आदि विविध कलाओं की साधना में रत रहते। प्राचीन जैन, बौद्ध एवं ब्रह्मणीय साहित्य तथा अनुभूतियों से यही प्रतीत होता है कि महावीरयुग में लोग सामान्तया सुखी थे, जीवन संघर्ष तब तक उतना भीषण और कठोर नहीं हुआ था, तथा उपभोग से अधिक उत्पादन होता था। अर्थव्यवस्था घाटे की नहीं बचत की थी।
वस्तुतः उस काल में राजनैतिक और आर्थिक विषमताएँ इतना त्रासदायक शायद नहीं थीं, जितना कि विविध सामाजिक विषमताएँ थीं। जन समुदाय के बहुभाग पर ब्राह्मण पुरोहितों का प्रभाव इतना बढ़ गया था और उनका पंजा इतना दृढ़ हो गया था कि वे स्वयं को साक्षात् 'भूदेव' (पृथ्वी का देवता) कहने लगे थे। अपने आपको अन्य सबसे पृथक रखने की उनकी प्रवृत्ति ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को शनैः शनै: ऐसी अनेक अलग-अलग जातियों-उपजातियों में विभाजित कर दिया, जिनका आधार व्यक्ति की मनोवृत्ति, कर्म या व्यवसाय न होकर, जन्म को माना जाने लगा । अर्थात् ये जातियाँ कर्मतः न रहकर, जन्मतः होने लगीं, और बहुधा उनमें रोटी-बेटी व्यवहार पर भी प्रतिबन्ध लगने लगा था। शूद्र कर्म करने पर भी ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण ही रहता, और ब्राह्मण कर्मा एवं धर्मा होते हुए भी शुद्र के घर जन्मा बालक जीवन भर शुद्र ही रहता । ये जातियाँ ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र इन चार वर्गों तक ही सीमित नहीं रहीं, अनेक व्यवसायपरक उपजातियाँ भी उदय में आने लगीं। ऐसा भी नहीं है कि ब्राह्मण के इस स्व- आरोपित तेज, उच्च स्थिति, पद एवं प्रभाव को सभी ने बिना बूं-चरा किये स्वीकृत कर लिया था। कम से कम उस काल का क्षत्रिय पग-पग पर ब्राह्मण को चुनौती दे रहा था, यहाँ तक कि ज्ञान-विज्ञान एवं धर्म के क्षेत्र में भी उसका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था। तीसरा वर्ण वैश्य था, जिसके हाथ में अर्थकोष की कुन्जी थी और जो सम्पूर्ण आर्थिक व्यवस्था की प्रधान धुरी था। अतएव ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही न तो उससे प्रत्यक्ष घृणा कर सकते थे और न उसकी उपेक्षा ही कर सकते किन्तु अनेक व्यावसायिक रूढ़ उपजातियों में विभाजित चतुर्थ वर्ण, शूद्र, उपरोक्त तीनों ही अधिकारसम्पन्न एवं तथाकथित द्विज वर्णों के शोषण का शिकार था। सामान्यतया वह ढंग से जीने और रहने की सुविधाओं से तथा धर्म का लाभ लेने से भी वंचित कर दिया गया था। इस चातुर्वर्ण्य संगठन के बाहर भी अनेक जातिबाह्य चांडाल, अन्त्यज, अस्पृश्य जैसे समुदाय थे, जिन्हें कोई नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं थे और जो पशुवत् जीवन जीते थे । प्रायः वैसी ही, शायद उससे भी अधिक होन एवं करुणोत्पादक स्थिति दास-दासियों की थी, जो खुले बाजार, जड़ पदार्थों अथवा मूक पशुओं की भाँति खरीदे और बेचे जाते थे । जैसे ही कोई दुर्भाग्य का मारा दास बनने पर विवश हो जाता, उसका कुल, शील, जाति, नाम, स्वतन्त्र व्यक्तित्व, सब समाप्त हो जाते थे । उसका कोई नागरिक अथवा कानूनी अधिकार नहीं रह जाता था । वह पूर्णतया अपने स्वामी की सम्पत्ति था, जो उसके साथ चाहे जो कर सकता था। दासप्रथा उस युग की एक ऐसी भयंकर सामाजिक विकृति थी जिसका विशेष भगवान महावीर ने खुलकर किया और समाज से उसका उन्मूलन करने में वह प्रायः सफल भी हुए ।
थे
एकच्छत्र राज्यतन्त्रों, सामन्तवाद, व्यापार और उद्योग, तथा इन सबसे भी अधिक जाति व्यवस्था की संकुचित कठोरता की उत्तरोत्तर वृद्धि के फलस्वरूप घर में भी और समाज में भी स्त्रियों का स्थान, स्थिति, दशा,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
·
www.jainelibrary.org