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________________ ख - ३ ४ ] जातिबाह्य मानते थे और उनके लिए क्षात्रबन्धु व्रात्य क्षत्रिय प्रभूति होनता द्योतक शब्दों का प्रयोग करते थे, जिसका कारण संभवतया यह था कि इन नवोदित क्षात्रधर्मियों का बहुभाग ब्राह्मण वैदिक धर्म का अनुयायी नहीं था, वरन् श्रमणों का उपासक था । मगध देश के राजे और पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं विहार की गणतन्त्रीय जातियाँ इसी वर्ग की थीं । प्राचीन जैन एवं बौद्ध साहित्य में उस काल में विद्यमान सोलह महाजनपदों का उल्लेख प्राप्त होता है । ही प्रमुख सत्ताएँ थीं। किन्तु इनमें भी जनतन्त्रीय जातियों का शक्तिशाली वज्जिगणसंघ, जिसका प्रमुख केन्द्र महानगरी वैशाली थी, और मगध ( राजधानी राजगृह, अपरनाम पंचशैलपुर, कुशाग्रपुर, क्षितिप्रतिष्ठ, मगधपुर, ऋषभपुर, आदि), कोसल ( राजधानी श्रावस्ती), वत्स ( राजधानी कौशाम्बी) तथा अवन्ति (राजधानी उज्जयिनी) के राजतन्त्र सर्वोपरि थे । मगध ने तो उसी युग में अपने बिम्बिसार श्रेणिक और अजातशत्रु कुणिक जैसे महत्वाकांक्षी एवं आक्रमण नीति विशिष्ट नरेशों के शासन में प्रभूत उत्कर्ष प्राप्त कर लिया था - भावी मगध साम्राज्य की नींव पड़ चुकी थी और उसकी महानगरी राजगृह को तो विश्व के धार्मिक दृष्टि से एक सर्वाधिक सम्पन्न समय को प्रसव करने और उसका केन्द्र होने का श्रेय प्राप्त हुआ । राजनीति के क्षेत्र में, पुराना जातीय मुखिया ( या कबीले का सरदार) अब वास्तविक राजा का रूप ले चुका था, जो प्रायः एकच्छत्र और बहुधा निरंकुश शासक होता था तथा अपनी प्रजा के जन सामान्य की वैयक्तिक सम्पत्ति भी चाहे जब हस्तगत कर सकता था। छोटे-बड़े भूमिपतियों और सामन्त सरदारों की संस्था द्रुत वेग से उभर रही थी । वे लोग राज्य और खेतिहर कृषक के मध्य बिचौलिए थे, राजतन्त्र की शक्ति को बल प्रदान करने में उनका बड़ा योग था । एकच्छत्र राज्यतन्त्रों में अभी भी कतिपय जनतन्त्रीय तत्व कार्यान्वित थे, यथा राजा के चुनाव में जनता की राय भी ली जाती थी, सिंहासनासीन होते समय नया राजा अपनी प्रजा को कुछ आश्वासन एवं वचन देता था, अपने मन्त्रियों के परामर्श से शासन कार्य चलाता था और सभा एवं समिति नामक सम्मेलनों में जनता की सम्मति भी विशेष परिस्थितियों में प्राप्त करता था । लिच्छवि, मल्ल, विदेह, शाक्य प्रभृति जातीय गणतन्त्रों में शासन का जनतान्त्रिक रूप स्वभावतया अधिक प्रत्यक्ष था। पड़ोसी शक्तियों में परस्पर युद्ध बहुधा चलते रहते थे, किन्तु उक्त युद्धों से सामान्य जनता को विशेष क्षति नहीं पहुंचती थीं- युद्ध में संलग्न विरोधी दल उन्मुक्त लूट-खसोट, तोड़-फोड़ और विध्वंस से प्रायः बचते थे, और यह सावधानी बरतते थे कि खेती एवं पशुधन को हानि न पहुंचे और यथाशक्य जन साधारण को कोई क्षति न हो । आर्थिक क्षेत्र में, कृषि जनता का सर्वप्रधान उद्योग था, यद्यपि विभिन्न हस्तशिल्प एवं कुटीर उद्योग भी द्रुतवेग से विकसित हो रहे थे । विविध उद्योग-धन्धों में लगे लोग स्वयं को अपने-अपने व्यवसाय से संबन्धित श्रेणियों, निगमों आदि में संगठित करने लगे थे । इस प्रकार सार्थवाह, राजश्रेष्ठि, महाजन, स्वर्णकार, लोहकार, कुम्भकार, तैलकार, तन्तुकार आदि के अपने पृथक-पृथक संगठन थे। इन श्रेणियों के निर्माण एवं संगठन में मगध नरेश बिम्बिसार ने विशेष योग दिया था । सम्भवतया इसी कारण वह राजा 'श्रेणिक' नाम से प्रसिद्ध हुआ । उद्योगधन्धों के विशिष्टीकरण, वृद्धि और प्रसार ने वाणिज्य एवं व्यापार को अभूतपूर्व प्रोत्साहन दिया । विविध पण्य से लदे बड़े-बड़े सार्थवाहँ थल और जलमार्ग से भी, जंगलों, मरुभूमियों, नदियों, और समुद्रों को पार करके दूर-दूर तक जाने-आने लगे थे । बैशाली, राजगृह, चम्पा, वाराणसी, श्रावस्ती, कौशाम्बी, उज्जयिनी और मथुरा जैसी महाराजधानियों के अतिरिक्त भी देश के विभिन्न भागों में अनगिनत व्यापार-केन्द्र उदय में आ रहे थे, और प्रत्येक में धनी महाजनों, वणिकों एवं व्यापारियों की संख्या वृद्धिगत थी। साथ ही क्रीत दासों, सेवकों, कर्मकरों और श्रमिकों की संख्या में भी वृद्धि हो रही थी। मांग एवं पूर्ति के सिद्धांत से निर्धारित व्यापार निर्बाध एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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