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महत्व के अतिरिक्त सन् ८६२ ई० के इस अभिलेख की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें विक्रम एवं शक दोनों ही संवतों के एक साथ उल्लेख का प्रायः सर्व प्राचीन उदाहरण मिलता है। एक विचिन्न शि० ले. १८ लिपियों में
जाता है कि आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की पत्नी ब्राह्मी ने उक्त अठारह लिपियों का सर्व प्रथम आविष्कार किया था। इसी मन्दिर के निकट एक अन्य जैन मन्दिर में ११वीं-१२वीं शती की लिपि में एक लेख है जिसमें एक दानशाला के वनाये जाने का वर्णन है।
इन जैन शिलालेखों में विभिन्न जैनाचार्यों, साध्वियों, विद्वानों, श्रावक-श्राविकाओं, राजा महाराजाओं आदि के नाम आये हैं।
इस प्रकार अपने आकर्षक प्राकृतिक वातावरण एवं असंख्य अप्रतिम कलाकृतियों, ऐतिहासिक शिलालेखों, आदि के लिए देवगढ़ सामान्य दर्शकों, कलाप्रेमियों, पुरातत्वज्ञों, इतिहास के विद्यार्थियों तथा धार्मिक जनसाधारण, सभी के लिए एक दर्शनीय एवं अध्ययनीय स्थल है। प्राचीन भारत का वैभव देवगढ़ आज भी भारतीय राष्ट का गौरव है।
देवगढ़ में यात्रियों की सुविधा के लिए पर्वत से नीचे वन्य विभाग का एक डाक बंगला और एक जैन धर्मशाला है, तथा दि. जैन देवगढ़ तीर्थ कमेटी की ओर से एक प्रदर्शक भी नियुक्त है। प्रतिवर्ष मार्च मास के अंतिम सप्ताह के लगभग देवगढ़ में एक भारी जैन मेला भरता है।
बानपुर ललितपुर जिले की महरौनी तहसील में, महरौनी से ९ मील (पक्की सड़क पर) और ललितपुर से ३२ मील पर बानपुर नाम का गांव स्थित है, जिसे महाभारतकालीन बाणासुर दैत्य की राजधानी बाणपुर का सूचक माना जाता है । गांव के उत्तरी भाग में गणेश जी की २२ भुजाओं से युक्त अद्वितीय विशालकाय मूर्ति स्थित है, और पास बहने वाली जामनेर नदी पर दैत्यसूता उषा के नाम पर उषाघाट प्रसिद्ध है।
गांव की दक्षिणी दिशा में, बानपुर-महरौनी मार्ग पर २८०x२०० फुट की एक चहारदिवारी के भीतर पांच प्राचीन जिनमन्दिर हैं । प्राकृतिक सुषमा से परिवेष्टित यह स्थल ही दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बानपुर के नाम से प्रसिद्ध है, जो धार्मिक महत्व के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ कलाधाम भी है।
उपरोक्त मन्दिरों में से नं० १ में सं० ११४२ (सन् १०८५ ई०) की प्रतिष्ठित संगमरमर की तीर्थंकर ऋषभदेव की भव्य प्रतिमा है, तथा एक अन्य देशी प्रस्तर की ५ फु० ४ इ० ऊँची तीर्थकर मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में है, जिसके साथ शासनदेवों का अंकन है । मन्दिर न०२ में ८-८।। फुट ऊँची दो खडिण्त तीर्थंकर मूर्तियां हैं । मन्दिर नं० ३, जो सम्भवतया इस अधिष्ठान का मुख्य मन्दिर था, के द्वार के ऊपर क्षेत्रपाल की मूर्ति बनी है, अन्दर एक वेदी में, मन्दिर के भौंहरे की खुदाई में प्राप्त, प्राचीन चरणचिन्ह स्थापित हैं, तथा एक अन्य वेदी में १४८४ ई० में प्रतिष्ठित पद्मासन जिनप्रतिमा विराजमान है। मन्दिर की बाहरी दीवार पर युगादिदेव, यक्ष-यक्षि, युगलिया, मिथुन तथा कतिपय पौराणिक दृश्यों के १९ कलापूर्ण अंकन हैं। मन्दिर न० ४ शिखर विहीन है और शान्तिनाथ जिनालय अथवा 'बड़े बाबा का मन्दिर' कहलाता है। इस मन्दिर में देशीपाषाण की १८ फुट ऊँची बड़ी मनोज्ञ, किन्तु नासिका आदि से खण्डित, शान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा है जिसकी चरण चौकी पर प्रतिष्ठा का सं० १००१ (सन १४४ ई०) अंकित है। शिलालेख के इधर-उधर छोटी-छोटी आकृतियाँ उपासकों आदि की बनी हैं। शन्तिनाथ के
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