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________________ ख - ६ [ ५९ देवगढ़ के समस्त जैन प्रस्तराङ्कनों का विधिवत अध्ययन करने से उनमें अनेक अनुभूतियों एवं पौराणिक आख्यानों का चित्रण मिलने की संभावना है। सभी मूर्तियां प्रस्तर निर्मित हैं या प्रस्तराङ्कनों के रूप में है । अधिकांश खड्गासन हैं, जिनकी ऊंचाई दोढाई फुट से लेकर बारह फुट तक हैं। मूर्तियों के केशों की बनावट भिन्न-भिन्न प्रकार की है । अरहन्तों एवं मुनियों की दिगम्बर प्रतिमाओं के अतिरिक्त सरागी देवी-देवताओं एवं गृहस्थ स्त्री-पुरुषों की भावभंगी, परिधान, अलङ्करण आदि के चित्रण में कलाकार ने कमाल किया है। अनेक जैन सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक प्रतीक यत्र-तत्व उत्कीर्ण मिलते हैं और लोक जीवन के दृश्य भी उपलब्ध हैं। इस प्रकार देवगढ़ का रूप शिल्प न केवल धार्मिक एवं कलात्मक दृष्टि से ही वरन सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। देवगढ़ के मन्दिरों का निर्माण उत्तर भारत में विकसित नागर शैली में हुआ है, जिसे पंचरत्न शैली भी कहते हैं | शान्तिनाथ आदि मंदिरों के शिखर अत्यन्त सुन्दर हैं। सभी मन्दिर प्रस्तर निर्मित हैं और उनका कटाव एवं कारीगरी दर्शनीय है। मन्दिरों के गर्भगृह प्रायः अन्धकारमय हैं और उनके द्वार बहुत छोटे-छोटे हैं किन्तु गर्भगृहों के आगे के सभा मंडप खुले और विशाल हैं जिन स्तम्भों पर वे आधारित हैं उनकी तथा छतों एवं दीवारों की कारीगरी और उनपर उत्कीर्ण मूर्त दृश्य एवं अलंकरण चित्ताकर्षक हैं। मन्दिरों के तोरणद्वार भी सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं। चरण चिन्हों से युक्त शिखरबंद खुली छतरियां भी हैं और जिनमूर्तियों एवं मंगल प्रतीकों से अलंकृत कई सुन्दर उत्तुंग मानस्तम्भ भी हैं। स्वयं दुर्गकोट, उसका तोरणद्वार घाट और सीढ़ियां, विशाल पाषाण में काटकर बनाई बावड़ी आदि भी प्राचीन स्थापत्य के अच्छे नमूने हैं । वस्तुतः उपरोक्त नागर शैली के स्थापत्य का विकास गुप्तकाल से और वह भी मुख्यतया देवगढ़ के जिनायतनों द्वारा ही प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है, यही कारण है कि देवगढ़ और उसके उपरान्त खजुराहों, चन्देरी, अजयगढ़, महोबा, अहार, पपौरा आदि के प्राचीन जैन मन्दिर प्राग्मुस्लिम कालीन सम्पूर्ण भारतीय कला का सफल प्रतिनिधित्व करते हैं। गुप्त गुर्जर-प्रतिहार और चन्देल वंशों के सहिष्णु नरेशों के आश्रय में उत्तर भारत की धर्माधित कला, विशेषकर जैनों के प्रयत्न से खूब फली फूली । । शिलालेखीय सामग्री की भी देवगढ़ में प्रचुरता है । उत्तर भारतीय पुरातत्व विभाग की सन् १९१८ ई० की वार्षिक रिपोर्ट में इस स्थान से प्राप्त लगभग २०० शिलालेखों की सूचना दी हुई थी उसके बाद भी एक सौ अन्य लेख मिले हैं । फिर भी देवगढ़ में तथा उसके आसपास जंगल में यत्र-तत्र बिखरी हुई खंडित अखंडित अनेक जैन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण सभी लेखों का अभी तक संग्रह और सूचना नहीं हो पाई है। रिपोर्ट में सूचित लेखों में से लगभग डेढ़ सौ लेख ऐतिहासिक महत्व के हैं, कुछ एक तो अत्यधिक महत्वपूर्ण है। लगभग साठ लेख ऐसे हैं जिनमें उनके अंकित किये जाने की तिथि का भी उल्लेख है । ये लेख प्रायः वि० सं० ९१९ से १८७६ पर्यन्त के हैं । ये शिलालेख न केवल देवगढ़ के तत्कालीन जैन धर्मावलम्बियों के धार्मिक जीवन, सामाजिक संगठन तथा तत्सम्बन्धी राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास पर विकास का अध्ययन करने के लिए भी ये । इतिहास ज्ञान के लिए ही उपयोगी है, वरन् भारतवर्ष के सामान्य भी पुष्कल प्रकाश डालते हैं। साथ ही नागरी अक्षरों एवं लिपि के क्रमिक अत्यधिक उपयोगी हैं। भोजदेव के समय के स्तम्भ लेख के अनुसार उक्त सम्राट के पंचमहाशब्दप्राप्त महासामन्त श्री विष्णुराम के शासन में आचार्य कमलदेव के शिष्य आचार्य श्रीदेव ने इस लुअच्छगिरि के प्रचीन शान्त्यायतन ( शान्तिनाथ के मन्दिर) के निकट गोष्ठिक बाजुआ गागा द्वारा मानस्तम्भ निर्माण कराकर वि० सं० ९१९ शककाल ७८४ की आश्विन शुक्ल चतुर्दशी वृहस्पतिवार को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में प्रतिष्ठापित किया था। अपने ऐतिहासिक एवं धार्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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