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________________ गुप्त नरेशों के काल से देवगढ़ का वास्तविक अभ्युदय प्रारम्भ हुआ। उस समय यह एक प्रसिद्ध राजमार्ग पर स्थित था और गुप्त साम्राज्य का एक प्रमुख जनपद था-संभवतया तत्प्रदेशीय भुक्ति का केन्द्रीय स्थान था। गुप्तकाल के कई जैन एवं वैष्णव देवालय, मूर्तियाँ तथा भवनों के अवशेष यहाँ प्राप्त हैं। ८वीं से १०वीं श कन्नौज के गुर्जरप्रतिहारों का देवमढ़ पर प्रभुत्व रहा और यह नगर एक महत्वपूर्ण प्रान्तीय केन्द्र एवं एक महासामन्त की राजधानी था। ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तों और गुर्जर प्रतिहारों के मध्य की शताब्दियों में इस स्थान पर किसी राज्यवंश या उपराज्यवंश का शासन रहा, उन्होंने ही इस सुरम्य पर्वत पर यह सुन्दर सुदृढ़ त्रिकूट दुर्ग निर्माण कराया और उसे अनेक जैन देवालयों एवं कलाकृतियों से अलंकृत किया। पर्वत के ऊपर और दुर्गकोट के भीतर अन्य किसी धर्म के या उसके देवालयों आदि के अवशेष नहीं मिलते। इसके विपरीत, ९वीं शती ई. के एक शिलालेख से सिद्ध होता है कि उसके पूर्व भी यह दुर्ग और उसके भीतर कई प्रमुख जिन मन्दिर विद्यमान थे। एक विद्वान का अनुमान है कि ८वीं-९वीं शती ई० में यहाँ किसी 'देववंश' का शासन रहा है। गुर्जर प्रतिहारों के उपरान्त जेजाकभुक्ति के चन्देल नरेशों का इस स्थान पर अधिकार रहा। उनके राज्य की यह एक उपराजधानी ही थी। उनके शासन में देवगढ़ के धार्मिक एवं कला वैभव की अभिवृद्धि ही हुई। यहां के अधिकांश महत्वपूर्ण अवशेष चंदेलकाल के ही हैं। मुस्लिम काल में यह स्थान प्रमुख राजपथ से दूर पड़ गया और धीरे-धीरे घने वन से वेष्टित होने लगा, फलस्वरूप उनकी कुदृष्टि देवगढ़ के देवालयों पर न पड़ पाई और विध्वंस किये जाने से उनकी रक्षा हो गयी। फिर भी १९वीं शताब्दी के प्रारंम्भ तक देवगढ़ का दुर्ग एक सुदृढ़ एवं सुरक्षित दुर्ग था। सन् १८११ ई० में जब सिंधिया की ओर से उसके सेनापति कर्नल फिलोज ने बुन्देलों से देवगढ़ को छीनना चाहा तो वह लगातार तीन दिन तक युद्ध करने के उपरान्त ही उस पर अधिकार कर पाया था। देवगढ़ का प्राचीन नाम लुअच्छगिरि था। चन्देल नरेश कीर्तिवर्मन (११वीं शती का अन्त) के मन्त्री वत्सराज ने इस स्थान पर एक नवीन दुर्ग निर्माण कराके, अथवा प्राचीन दुर्ग का ही जीर्णोद्वार कराकर इसका नाम कीर्तिगिरि रक्खा था। सन् ८६२ ई० का शिलालेख जिस जैन स्तम्भ पर मंकित है उसके प्रतिष्ठापक आचार्य कमलदेव के शिष्य आचार्य श्रीदेव थे। संभव है वे देवसंघ के आचार्य हों और इस स्थान पर अपनी भट्टारकीय गद्दी स्थापित की हो तथा यहां के प्रसिद्ध धर्माचार्य रहे हों, उनके अपने या उनके संघ के नाम से यह दुर्ग देवगढ़ कहलाने लगा हो । इस प्रदेश में प्रचलित एक जनश्रुति भी है कि प्राचीन काल में किसीसमय देवपत और क्षेमपत नाम के दो जैन भ्राता इस नगर में रहते थे। देवकृपा से उन्हें पारस पथरी प्राप्त हो गई, जिसके प्रभाव से वे विपुल धन ऐश्वर्य के स्वामी बन गये । उस धन का सदुपयोग उन्होंने इस स्थान पर अनेक भव्य जिनायतनों का निर्माण कराने तथा दुर्ग एवं नगर का सौन्दर्य तथा वैभव बढ़ाने में किया। तत्कालीन राजा ने उन पर आक्रमण करके वह पथरी उनसे बरबस छीनना चाही, किन्तु देवपत ने उस पथरी को इसके पूर्व ही बेतवा के गम्भीर जल में विसर्जित कर दिया था। कहा जाता है कि उक्त देवपत के कारण ही यह स्थान देवगढ़ कहलाया। यह भी संभव है कि अनगिनत देवमूर्तियों एवं देवायतनों के कारण ही उसका देवगढ़ नाम प्रसिद्ध हुआ। कम से कम जैनों की दृष्टि में तो अपने बहसंख्यक प्राचीन देवमंदिरों एवं देव प्रतिमाओं के कारण वह एक सच्चा देवगढ़ बना चला आया है और किसी तीर्थंकर की कल्याणक भूमि न होते हुए भी एक पवित्र धर्मतीर्थ के रूप में दर्शनीय एवं वन्दनीय रहता आया है। इसके साथ कई अतिशय या चमत्कार भी जुड़ गये हैं। देवगढ़ के पुरातत्वावशेषों में से अधिकांश जैन मन्दिरों, मूर्तियों और भवनों के ही भग्न-अभग्न अवशेष हैं, और उनमें से भी अधिकांश उसके केन्द्रीय स्थान दुर्गकोट के भीतर ही हैं। इन में कुछ बहत छोटे-छोटे धर्मायतनों को छोड़कर शेष लगभग ३०-३१ भव्य जिनमन्दिरों के स्पष्ट चिन्ह मिलते हैं, और इनमें भी लगभग १६-१७ बहुत कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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