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की थी, आगरा के मोतीकटरे में मोतियों का व्यापार करने वाले साह बन्दीदास, ताराचन्द्र साहु आदि सेठ थे । पं० बनारसीदास ने भी प्रारम्भ में जौनपुर में पिता के साथ जवाहरात का पैतृक व्यापार किया, फिर इलाहाबाद में भी कुछ दिन किया और अन्त में आगरा में आकर बस गये- वहीं अन्त तक व्यापार भी करते रहे और धर्म एवं साहित्य की साधना भी करते रहे ।
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आगरा जिले के टापू या टप्पल ग्राम के निवासी पद्मावती पुरवाल जैन ब्रह्मगुलाल चन्द्रवाड़ के चौहान राजा कीर्तिसिंह के दरबारी, सिद्धहस्त अभिनेता और कुशल लोक कवि थे - बाद में जैन मुनि हो गये थे । आगरा के अग्रवाल जैन सेठ तिहुना साहु ने एक विशाल जिनमंदिर ( देहरा) बनवाया था जिसमें १६३५ ई० में प्रसिद्ध सिद्धान्त-मर्मज्ञ पं० रूपचन्द्र कुछ दिन रहे थे - पं० बनारसीदास और उनके साथियों ने इन्हें गुरु मान्य किया था । स्वयं पं० रूपचन्द कुहदेशस्थ सलेमपुर (शायद फर्रुखाबाद जिले में ) के निवासी थे और वाराणसी में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी, कुछ दिन दरियापुर ( बाराबंकी जिले का दरियाबाद) में भी रहे, दिल्ली और आगरा में भी रहे - अधिकतर समय उनका यत्र-तत्र भ्रमण, साहित्य सृजन और ज्ञान प्रसार में व्यतीत हुआ । शौरिपुर के भट्टारक जगत्भूषण की आम्नाय के गोला पूर्ववंशी श्रावक दिव्यनयन के पौत्र और मित्रसेन के पुत्र संघपति भगवानदास ने, जो बड़े धन सम्पन्न एवं धर्मात्मा थे, इन्हीं पंडितजी से १६३५ ई० में 'भगवत् समवसरणाचंन विधान' की संस्कृत भाषा में रचना कराई थी ।
१६७१ ई० फतेहपुर के नवाब अलफख के दीवान ताराचन्द्र ने यति लक्ष्मीचन्द्र से शुभचन्द्राचार्यकृत 'ज्ञानार्णव' का ब्रजभाषा में पद्यानुवाद कराया था । कुँवरपाल एवं सोनपाल दो ओसवाल जैन सहोदर थे और कुशल व्यापारी थे । ये आगरा के निवासी थे, किन्तु पटना जा बसे । उन्होंने मिर्जापुर में एक जिन मंदिर बनवाया था । बंगाल-बिहार के सुप्रसिद्ध जगत्सेठ घराने के पूर्वपुरुष हीरानन्द शाह भी आगरा के ही निवासी थे, जो १६६१ ई० के लगभग पटना में जा बसे थे ।
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१७०७ ई० में औरंगजेब की मृत्यु के उपरान्त मुग़ल साम्राज्य की शक्ति, विस्तार, समृद्धि और प्रतिष्ठा का द्रुतवेग से ह्रास होने लगा । नादिरशाह दुर्रानी और अहमदशाह अब्दाली के भयंकर आक्रमणों, लूटमार और नरसंहार ने उसे मृतप्राय कर दिया। रही-सही कसर मराठों और सिक्खों की लूट-पाट ने पूरी कर दी । साम्राज्य के सभी प्रान्तों के सूबेदार स्वतन्त्र हो गये, और स्वयं उत्तर प्रदेश में, अवध के नवाब, रुहेलखण्ड के रुहेले पठान और फर्रुखाबाद के बंगश पठान प्रायः स्वतन्त्र शासक बन गये । इस दुरावस्था का लाभ अंग्रेज व्यापारियों ने उठाया और बंगाल, कर्नाटक-मद्रास, बम्बई से शुरू करके अपनी राज्यसत्ता जमानी और उसका विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया । परिणाम यह हुआ कि एक सौ वर्ष के भीतर ही देश का राजनैतिक मानचित्र सर्वथा बदल गया, और १८५७ ई० के स्वातन्त्र्य समर की सफलता के बाद तो अंग्रेज ही पूरे देश के निष्कंटक शासक बन गये । इस प्रकार डेढ़ सौ वर्ष ( १७०७ - १८५७ ) का यह काल भारतीय इतिहास का अन्धयुग है और उसका इतिहास अराजकता, विशृंखलता, अशान्ति, नैतिक पतन तथा थोड़े से सर्वथा अपरिचित विदेशियों द्वारा इस महादेश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ते जाने का ही लज्जाजनक इतिहास है । उस युग में घोर अराजकता, अशान्ति, मारकाट, लूटखसोट, ईर्ष्या-द्वेष, वैर-विरोध एवं सर्वव्यापी पतन के बीच, जब छोटे-बड़े किसी की भी मान-मर्यादा, प्राण और धन सुरक्षित नहीं थे, धर्म और संस्कृति जैसे प्रकाशपुंजों की बात उठाना ही व्यर्थ है- उनकी ओर ध्यान देने का किसे अवकाश था। भारतवर्ष के अन्य भागों की अपेक्षा भी उत्तर प्रदेश में स्थिति अधिक शोचनीय थी । उस काल के बादशाह, राजे, रईस, नवाब, सामन्त और सरदार अधिकतर या तो निर्मम लुटेरे एवं क्रूर अत्याचारी थे, अथवा कायर, आलसी, विलासी और दुराचारी थे । किसी को भी अपनी स्थिति के स्थायित्व का
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