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________________ ३० ] मनुष्य से ईश्वर बनने की प्रक्रिया ही तीर्थकरत्व है, और संसार-प्रवाह से बचने की प्रक्रिया ही 'तीर्थ' है। इस धर्मतीर्थ और संस्कृति का अविनाभावी सम्बंध है-एक दूसरे का पूरक है। धर्म संस्कृति को ऐतिहासिकता एवं विशिष्टता प्रदान करता है तथा उसे अवगाहन योग्य बनाता है, तो संस्कृति अपने गतिशील आंतरिक संस्पर्श से धर्म को संवेदनशील, सप्राण एवं परिस्थितियों में सक्षम बनाये रखती है। उक्त भाव-तीर्थ के भौतिक प्रतीक वे पावन स्थल हैं जहाँ तीर्थंकरों को गर्भावतरण, जन्मोत्सव, दीक्षाग्रहण, केवलज्ञान प्राप्ति और निर्वाणलाभ हुआ था, जहाँ अन्य मोक्षगामी महापुरुषों ने तप किया या सिद्धि प्राप्त की, अन्य विशिष्ट धार्मिक घटनाओं, अतिशय आदि से सम्बद्ध पवित्र स्थान, तथा प्राचीन कलाधाम जो अपने विविध एवं महत्त्वपूर्ण मंदिरों, मूत्तियों या अन्य धार्मिक कलाकृतियों के लिए प्रसिद्ध हैं। ये प्रायः सब जैन संस्कृति के केन्द्र चिरकाल से रहते आये हैं, और प्रत्येक वर्ष विभिन्न समयों में सहस्त्रों जैन तीर्थयात्री इन तीर्थक्षेत्रों की यात्रार्थ देश के कोने-कोने से आते रहते हैं। उत्तर प्रदेश जैनधर्म और संस्कृति का उद्गम स्थान एवं उनका सहस्त्राब्दियों से लीलाक्षेत्र रहा आया, अतएव इस प्रदेश में पचासों जैन तीर्थ सप्राण बने हए हैं। एक प्रसिद्ध पाश्चात्य पुरातत्त्व सर्वेक्षक ने कहा है कि भारतवर्ष के किसी भी स्थान को केन्द्र मानकर यदि बारह मील अर्धव्यास का वृत्त खींचा जाय तो उसके भीतर एकाधिक प्राचीन, मध्यकालीन अथवा अर्वाचीन जैन मंदिर, स्मारक या भग्नावशेष अवश्य प्राप्त हो जायेंगे। उत्तर प्रदेश के विषय में भी यह बात पूरी तरह लागू है। प्रदेश में अनेक स्थान आज ऐसे भी हैं जहाँ वर्तमान में आस-पास भी कोई जैन नहीं रहता, किन्तु पूर्वकाल में कभी वह अच्छा जैन केन्द्र या धार्मिक स्थल रहा था, और इसीलिए पुराने मकानों, हवेलियों आदि के खंडहरों में से, खेतों, कुओं और बावड़ियों में से, नदियों के तल से भी, प्राचीन जैन मूत्तियाँ आदि जब-तब निकलती रहती हैं। यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि उत्तर प्रदेश के अनेक प्राचीन ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र, यथा श्रावस्ती, अहिच्छत्रा, कौशाम्बी, शौरिपुर, हस्तिनापुर, देवगढ़, काकंदी आदि विस्मृति के गर्भ में समाजाने से इसी कारण सुरक्षित रह सके क्योंकि जैनीजन उन्हें अपने पवित्र तीर्थस्थान मानते रहे और मध्यकाल में भी उनकी यात्रार्थ बराबर आते रहे। उत्तर प्रदेश के जैन तीर्थों एवं सांस्कृतिक केन्द्रों को स्थूलतया छः वर्गों में विभाजित किया जा सकता है(क) तीर्थंकर जन्मभूमियाँ, (घ) महावीर विहार स्थल, (ख) अन्य कल्याणक क्षेत्र, (च) अतिशय क्षेत्र एवं कलाधाम, और (ग) तपोभूमियाँ एवं सिद्धभूमियाँ, (छ) अर्वाचीन प्रसिद्ध एवं दर्शनीय मंदिर । (क) तीर्थकर जन्मभूमियां उत्तर प्रदेश में अयोध्या, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, चन्द्रपुरी, काकंदी, सिंहपुरी, काम्पिल्य, रत्नपुरी, हस्तिनापुर और शौरिपुर विभिन्न तीर्थंकरों की जन्मभूमियाँ रही हैं। अयोध्या फैजाबाद जिले में फ़ैज़ाबाद नगर से ५ मील तथा अयोध्या रेलवे स्टेशन से एक मील की दूरी पर, सरयू (घाघरा) नदी के तट पर स्थित अयोध्या भारतवर्ष की प्राचीनतम महानगरियों एवं परम पुनीत धर्मतीर्थों में परिगणित है। जैन, वैष्णव और बौद्ध ही नहीं, मुसल्मान भी इस नगरी को अपना पवित्र तीर्थ मानते आये हैं। इस नगरी का सांस्कृतिक महत्त्व इतना अधिक रहा कि सुदूर पूर्व बर्मा, स्याम आदि देशों में भी अबसे डेढ़-दो सहस्त्र वर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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