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________________ ६४ ] एक इन्द्रपुर बुलन्दशहर जिले में भी है और जैनधर्म का उसके साथ सम्बंध रहा है। स्वयं बुलन्दशहर के प्राचीन नाम बरन (या वरण) और उच्चनगर थे, और मथुरा के शिलालेखों में जैनमुनियों के वारण गण तथा उच्यनागरी शाखा के अनेक उल्लेख सूचित करते हैं कि दो हजार वर्ष पूर्व भी ये स्थान जैनमुनियों के केन्द्र रहे थे। वर्तमान अलीगढ़ का पुराना नाम भी कोल या कोइल है-इस नाम का एक छोटा सा गाँव अलीगढ़ के निकट अब भी विद्यमान है । यह स्थान भी प्रचीन काल में जैन केन्द्र रहा । सीतापुर जिले का खैराबाद मध्यकाल में एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा और प्रायः तीर्थरूप में उसकी मान्यता रही। चण्द्रवाड अतिशयक्षेत्र चन्द्रवाड की पहचान आगरा जिले में फिरोजाबाद नगर से ४ मील दक्षिण की ओर, यमुनातट के निकट, फैले हुए खंडहरों से होती है । इस नगर का मूलनिर्माता जैनधर्मानुयायी चौहान वीर चन्द्रपाल था, जिसने नगर निर्माण के साथ ही यहां अपने इष्टदेव चन्द्रप्रभु का भव्य जिनालल बनवाकर उसमें उनकी स्फटिक मणि की पुरुषाकार प्रतिमा प्रतिष्ठापिन की थी। उस राजा ने तथा उसके बाद उसके वंशजों ने १०वीं से १६वीं शती पर्यन्त इस भूभाग पर शासन किया था । वंश के अधिकांश राजे जैनधर्म पोषक थे और उसके मन्त्री तो प्रायः सभी जैन हुए। उपरोक्त प्रतिमा बड़ी अतिशयपूर्ण मानी जाती रही है। कालदोष से चन्द्रवाड नगर उजड़गया, उसके स्थान में फिरोजाबाद बस गया-पुराने नगर की स्मृति के रूप में चौहानों के दुर्ग, जैन मन्दिर तथा कुछ अन्य भवनों के भग्नाव शेष बचे हैं। कुछ वर्ष हुए यमुना के तल से स्फटिक की चन्द्रप्रभु प्रतिमा प्राप्त हुई थी। उसे ही मूल प्रतिमा माना जाता है। तीर्थ नहीं रहा, किन्तु तीर्थ का अतिशय बना हुआ है। मरसलगंज आगरा जिले में, फिरोजाबाद से १२ मील उत्तर की ओर फरिहा गांव के निकट स्थित अतिशयक्षेत्र मरसलगंज अपनी आदिनाथ भगवान की विशाल, कलापूर्ण, पद्मासनस्थ प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है। दर्शनीय स्थान है, तीर्थरूप में मान्यता है, मेला भी भरता है। असाईखेड़ा इटावा जिला में, इटावा नगर से ९ मील की दूरी पर स्थित असाईखेड़ा या आसंईखेड़ा एक प्राचीन स्थान है । पहले यहाँ भरों का राज्य था, जो जैनधर्मानुयायी रहे प्रतीत होते हैं । चन्द्रवाड के चौहान राज्य संस्थापक चन्द्रपाल ने १०वीं शती में इस क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाया और यहाँ भी एक दुर्ग बनवाया। इस स्थान से जैन मन्दिरों एवं मूत्तियों के अनेक अवशेष मिले हैं जो १०वी से १४वीं शती तक के हैं इनमें से कुछ मूत्तियां राज्य संग्रहालय लखनऊ में भी आई बताई जाती हैं जो सं० १०१८ से १२३० (सन् ९६१ से ११७३ ई०) तक की हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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