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________________ १२२ ] ठीक अनुमान लगाना कठिन है। यदि कुषाण संवत् मानें तो यह समय ९९ ई. आता है जो आयागपट्ट की परमरा को बहुत बाद तक प्रचलित सिद्ध करता है । (प्राप्ति स्थान : कठौती कुआ निकट मेंस बहोरा, मथुरा)। सर्वतोमद्रिका प्रतिमाएं-संग्रहालय में कुछ ऐसी प्रतिमाएं हैं जो चौकोर स्तम्भ के समान हैं और उनमें चारों ओर तपस्या में तीन-चार जिन आकृतियां बनी हैं। इस प्रकार की मुद्रा दण्ड या कायोत्सर्ग नाम से प्रसिद्ध है। मूतियों को सर्वतोभद्र, सर्वतोमंगल या लोक भाषा में चौमुखी कहते हैं। इनमें प्रदर्शित तीर्थंकरों में से आदिनाथ को कन्धों तक लटकती जटाओं से और सुपार्श्व या पार्श्वनाथ कों सर्पफण की छतरी से पहचाना जा सकता है। अन्य दो कौन हैं यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु अनुमान है कि इनमें से एक वर्धमान या महावीर अवश्य होने चाहिए क्योंकि प्राप्त अभिलिखित मूर्तियों से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर ब्रज में अधिक लोक प्रिय थे । चौथे के बारे में अनुमान लगाना कठिन है। सभी के वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित रहता है। नीचे उपासकों में कुछ उदीच्य वेष में बटनदार लम्बा कोट और जूते पहने हुए भी हैं (बी० ६७)। संभव है ये जैनधर्म के अनुयायी शक पुरुष हों। ऐसी मूर्तियों के ऊपर गोल अथवा चौकोर छेद रहता है और नीचे खूटी निकली रहती है जिससे यह प्रकट है कि ये किसी वास्तु स्तूप, चैत्य या देवालय का भाग थीं और इन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता था कि भक्त जन इनका चारों ओर से दर्शन और परिक्रमा कर सकें। चौमुखी मूर्तियों में सबसे प्राचीन है मूर्ति बी० ७१ जिसके अभिलेख के अनुसार सं०५ में इसकी प्रतिष्ठा हुई। यह समय ८३ ई० आता है।" संग्रहालय की मूर्ति सं० बी०६७, बी०६८, बी० ७२ और ४५.३२०९ भी उल्लेखनीय है। मूर्ति सं० १२.२७६ चौमुखी का अधोभाग है जिसके अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे ऋषिदास की प्रेरणा पर अभिसारिक के भटिदाम ने स्थापित कराया। अभिसारक को पेशावर के पास हजारा बताया है । अनुमान है कि मट्टिदामन कोई विदेशी था जिसने मथरा आकर जैन धर्म स्वीकार किया। यह मूर्ति खण्ड भूतेश्वर से मिला। तीर्थंकर-मथुरा जैसे विशाल कला केन्द्र और प्रसिद्ध जैन स्थल में प्रायः सभी तीर्थकरों की उपासना होती होंगी और उनकी मूर्तियां स्थापित हुई होंगी। किन्तु जैसा कि संकेत दिया जा चुका है चिह्न अथवा अभिलेख के अभाव में यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि वे समस्त मृतियां किस-किस का प्रतिनिधित्व करती हैं तथापि चरण चौकियों के लेख हमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ, पांचवे तीर्थकर सुमतिनाथ तथा २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर का परिचय देते हैं । वर्धमान का उल्लेख अधिक है। इनके अतिरिक्त सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व और तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को सर्वफणों की छतरी और २२वें तीर्थकर नेमिनाथ को बलराम तथा कृष्ण की आकृतियों के साथ पहचान संकते हैं। मथुरा संग्रहालय की निश्चित संवत् से अंकित प्रतिमाओं में कुषाण संवत् ५ (८३ ई०) की चौमखी मति बी० ७१ सबसे प्राचीन है। सामान्य जिन प्रतिमाओं में प्राचीन है कनिष्क के संवत १७ अर्थात ९५ ई० की चरण चौकी (सं० ५८.३३८५) और सबसे बाद की है संवत् ९२ अर्थात् १७० ई० की वासुदेव के शासनकाल की। संवत सहित जिन प्रतिमाएं-४८.३३८५-यह जिन प्रतिमा की चौकी है जिसमें बने चरणों से आभास मिलता है कि मूर्ति खड़ी होगी। बीच में धर्मचक्र बना है जिसके एक और बाएं हाथ पर वस्त्र खण्ड लिए जैन मुनि है। इसके पीछे तीन पुरुष उपासक हैं। अन्तिम व्यक्ति परिधान से शक प्रतीत होता है। चक्र के दूसरी ओर तीन महिला उपासिकाएं माला और पुष्प लिए हैं। अभिलेख का भाव है कि देवपुत्र शाहि कनिष्क के १७वें वर्ष के शीत ऋतु के दूसरे महीने के २५वें दिन कोट्टियगण की बईरा शाखा के सांतिनिक कुल की कोशिकी गहरक्षिता की प्रेरणा पर इस प्रतिमा की स्थापना हई (प्राप्ति स्थान : चौबिया पाड़ा मथुरा)। १४.३९६-जिन चरणचौकी का भाग जिसके अभिलेख से सूचना मिलती है कि यह कनिष्क के समय स्थापित हुई (प्राप्ति स्थान : कंकाली टीला, मथुरा)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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