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________________ ख -४ बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत और पुरुषोत्तम राम समकालीन बताये जाते हैं। इक्कीसवें तीर्थकर नमि और विदेह जनक का काल एक माना गया है। २२वें तीर्थंकर नेमि वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे। २३वें तीर्थंकर पार्श्व का जन्म वाराणसी में हुआ और बिहार के सम्मेदशिखर से सौ वर्ष की आयु में उनका निर्वाण हआ। अब भी यह पर्वत पार्श्वनाथ पहाड़ के नाम से जाना जाता है। जब महावीर जन्मे, उस समय पार्श्व की परम्परा के श्रमण बहु संख्या में मौजूद थे । राजगृह पाश्र्वानुयायियों का गढ़ था । स्वयं महावीर के माता-पिता पार्श्व के अनुयायी थे। महावीर और गौतम बुद्ध जब संन्यस्त हए तो उन्होंने पार्श्व का ही श्रामण्य जीवन स्वीकार किया था। पार्श्व की परम्परा के साधू निग्गंठ समण' और गृहस्थ अनुयायी 'पापित्य' कहलाते थे। गौतम बुद्ध को पार्श्व की साधना पद्धति बहुत कठोर प्रतीत हुई। इहलिए उन्होंने उसे छोड़ कर बीच का रास्ता निकाला, जिसे 'मध्यमप्रतिपदा' कहा जाता है। महावीर ने पार्श्व की साधना पद्धति को और अधिक विकसित किया। कायोत्सर्ग की जितनी कठोर साधना उन्होंने की उसका इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। साढ़े बारह वर्ष तक महावीर निरन्तर साधना करते रहे। सर्वथा निर्वस्त्र रह कर भीषण गरमी, शीत और वर्षा में उन्होंने साधना की। जेठ की तपती दोपहरी में महावीर नंगे बदन तप्त शिला पर बैठ जाते या खड़े रहते । कड़कड़ाती सर्दी में जब बर्फीली हवाएं सांय-सांय करती हुई बहती, पक्षी भी घोंसलों में मुंह छिपाए दुबक कर बैठे रहते, ऐसे में महावीर किसी ताल के तट पर या नदी के किनारे निरभ्र आकाश में अपनी अनावृत्त काया लिए ध्यान में मग्न होते। झंझावात और तूफानी बरसातें, वे अपनी खुली देह पर झेल लेते। लगातार कई-कई दिनों, सप्ताहों और महीनों तक महावीर बिना खाये, बिना पिये रह जाते। जहां भी जाते पैदल जाते। न बोलते न बतियाते। उन्हें कोई गाली देता, कठोर वचन बोलता, सुन लेते । अपमान करता, यातना देता, सह लेते, न कुछ बोलते, न प्रतिकार करते। कोई उन्हें आदर देता, वन्दन करता उसका भी वे उत्तर न देते। साधना की इस दीर्घावधि में वे कुल मिला कर मुश्किल से कुछ मुहूर्त ही सोये। वे अपने जीवन पर ही तरह-तरह के प्रयोग कर रहे थे। महावीर ने कठोर से कठोरतम साधना की और एक दिन पाया कि उन्होंने अपने आप को पूरी तरह जीत लिया है। वे 'जिन' हो गये। जैन दर्शन के जो सिद्धान्त हमें वर्तमान में प्राप्त हैं, उन्हें हम महावीर की साधना और चिन्तन का नवनीत कह सकते हैं। महावीर के अनुयायी आचार्यों ने पिछले ढाई हजार वर्षों में उन सिद्धान्तों की जो व्याख्याएं की, उनमें युगीन सन्दर्भ भी जुड़ते चले गए । दार्शनिक युग की जटिलताओं में सीधे-साधे सिद्धान्त इतने दुरूह लगने लगे कि जीवन के साथ उनका सम्बन्ध ही न हो। इसी युग में धार्मिक अनुदारता के कारण सिद्धान्तों की दुर्व्याख्या भी की गयी और दुरालोचना भी, पर इस सबसे वे खराद पर चढ़ाए गए हीरे की तरह और अधिक चमकदार होकर सामने आये। महावीर ने जीवन और जगत के किसी भी प्रश्न को अव्याकृत कह कर नहीं टाला। उन्होंने प्रत्येक के समाधान दिये। जैन दर्शन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की धुरी पर प्रतिष्ठित है। दृष्टि जव तक सही न हो, ज्ञान सच्चा हो ही नहीं सकता। और सही ज्ञान के बिना सदाचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए जैन दर्शन में इनको सम्मिलित रूप से मोक्ष का मार्ग कहा है। सम्यग्दर्शन में सम्पूर्ण तत्वमीमांसा निहित है। सम्यग्ज्ञान में ज्ञानमीमांसा । सम्यग्चारित्र जीवन की एक पूर्ण आचार संहिता है। जैन दर्शन के तत्व चिन्तन और ज्ञान मीमांसा में हजारों हजार वर्षों के बाद भी विशेष अन्तर नहीं आया। आचारसंहिता युग और परिस्थितियों के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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