SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४१ बदलती रही है। छह द्रव्य, सात तत्व और नव पदार्थ तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि का विवेचन यथापूर्व अब भी मिलता है। जैन दर्शन का पहला सूत्र है-चेतन और अचेतन दो मूल तत्व हैं। इनका स्वरूप और प्रकृति सर्वथा भिन्न हैं। पर स्वर्ण-पाषाण में स्वर्ण और बालुका के कणों की तरह या दूध में पानी की तरह अनादिकाल से मिले हैं। इनको पृथक्-पृथक् जान लेना ही सम्यग्ज्ञान है। इस सिद्धान्त ने एक नयी जिज्ञासा को जन्म दिया। ये जड़ और चेतन कैसे बंधते हैं, कैसे अलग-अलग हो सकते हैं। इस जिज्ञासा के सूत्र हैं बन्ध और मोक्ष । इसके समाधान में से प्रतिफलित हुआ कर्म का सिद्धान्त । आस्रव बन्ध का कारण है। संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं। चेतन जड़ से संपृक्त रह कर जो क्रिया करता है, उससे कर्म के परमाणु आ-आ कर बंधते जाते हैं । योग द्वारा क्रिया या परिस्पन्द को रोक दिया तो कर्मों का आना रुक जाता है। संवर की इस स्थिति के बाद पूर्व संचित कर्मों का विनाश निर्जरा है और सर्वथा पृथक्करण मोक्ष है। चेतन और अचेतन की बद्ध अवस्था संसार है और स्वतन्त्र अवस्था मोक्ष । जीव और जगत का यही दर्शन है। चेतन आत्मा है। जितने चेतन हैं, उतनी सब स्वतन्त्र आत्माएं हैं। प्रत्येक आत्मा अपने कर्म का कर्ता और उसके परिणामों का भोक्ता स्वयं है--"अप्पा कत्ता विकत्ता य ।" जैन दर्शन में आत्मा और कर्म के इस सिद्धान्त ने व्यक्तित्व को जो प्रतिष्ठा दी, वह भारतीय चिन्तन में अद्भुत है। यही आत्म-विद्या या अध्यात्म है। आत्मविद्या के पुरस्कर्ता तीथंकरों ने भारतीय मनीषा को इतना प्रभावित किया कि 'स्वर्गकामः यजेत्' का वैदिक चिन्तक भी उपनिषदकाल में आ कर आत्मा की बात करने लगता है। दूसरी जिज्ञासा थी—यह दृश्यमान् जगत क्या है, कैसे बना और कैसे चलता है ? जैन दार्शनिकों ने कहा यह स्वयं कृत है। न कोई बनाता है, न चलाता है। न जीव और जड़, चेतन और अचेतन स्वयं इसके कर्ता और संचालक हैं। जिस प्रकार जीव अनेक हैं पर उनकी कोटियां हैं उसी प्रकार अजीव या अचेतन द्रव्य पांच तरह के हैं, उनको कोटियां अनेक हैं, भेद-प्रभेद अनेक हैं । यही संसार है। इस सिद्धान्त ने मानव मनको बड़ी राहत दी। वह किसी अज्ञात शक्ति का दास नहीं है, वह अपने कार्य का कर्ता स्वयं है और उसके अच्छे बुरे परिणाम का भोक्ता भी स्वयं है। अपना सूत्रधार वह स्वयं है। कोई अन्य शक्ति उसे संचालित नहीं करती। इस चिन्तन से मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठा मिली। उसके कृतित्व को प्रतिष्ठा मिली। व्यक्तित्व को प्रतिष्ठा मिली। एक बात और आप देखें-चिन्तन जब गहराई में उतरा तो सहज प्रश्न उठा-यदि यह बात है तो दार्शनिकों के चिन्तन में मतभेद क्यों है ? सब एक जैसी बात क्यों नहीं कहते ? एक दूसरे की बात परस्पर विरोधीसी क्यों लगती है? इन प्रश्नों ने अनेकान्त के दर्शन को जन्म दिया। भोले मन, तुम जितना जानते हो, वह तो एकांश ज्ञान है, तुम जितना कहते हो, वह तो एकांश कथन है। जितने जन कहेंगे उनकी दृष्टिबिन्दुएं अलग-अलग होंगी। उनका अपना चिन्तन दूसरे से सापेक्ष होगा। यह जान लें तो कहीं विरोध नजर ही नहीं आता। विचार के स्तर पर इस चिन्तन को अनेकान्त नाम दिया गया और वाणी के स्तर पर स्याद्वाद । जीवन में इस सापेक्ष सिद्धान्त का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy