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________________ ख -६ । १०७ (३) वत्स जनपद की राजधानी कौशाम्बी यमुना नदी के उत्तरी तट पर एक अत्यन्त सम्पन्न महानगर था। राजा शतानीक की अजेय सेना भग्ग जनतंत्र को पराभूत कर चुकी थी और सोन नदी पार अंग के राजा दधिवाहन को परास्त कर तत्कालीन राजनीति में अपनी शक्ति का सिक्का जमा चुकी थी। कौशाम्बी की हाट में दासियों का क्रय-विक्रय विशेष आकर्षण का विषय होता था। दूर-दूर के देशों से लाये गये बन्दी युवक और युवतियाँ पशुओं की तरह बंधे खड़े होते थे। पुरुष की बलिष्ठता और स्त्री का रूप-लावण्य एवं अंग-सौष्ठव किसी मिट्टी के खिलौने की भाँति आँके और मोल-भाव किये जाते थे। एक व्यापारी आज एक ही रूपसी दासी बेचने आया था। वह शोडषी तन्वङ्गी थी, मुख लज्जा से क्लान्त था परन्तु अभिजातीय दमक से उद्दीप्त भी था। उसके खड़े होने की मुद्रा में एक संस्कारी नागरिकता झलक रही थी। एक ही वस्त्र इस प्रकार लपेट दिया गया था कि ग्राहक उसके हर अंगउपांग का भरपूर निरीक्षण कर ले । व्यापारी ने उसका मूल्य एक सहस्र रौप्य कार्षापण नियत किया। व्यापारी को अपने माल के खरेपन का विश्वास था। उसने उद्घोष किया-"राजपुरुष, श्रेष्ठि और नागरिक ! इस अस्पृश्या तन्वगी को देखें । भाग्यशाली ही इसे दासी रूप में ग्रहण कर सकेगा। एक सहस्र रौप्य कार्षापण मात्र उसकी स्वर्णबालुका सदृश रोम-राजि का ही मूल्य है।" ग्राहकों को आकर्षित करने के लिये वह अक्सर अपने दण्ड से बाला के अंग-उपांगों को संकेत करता था और लोलुप दृष्टियां बाला की क्लान्ति में वृद्धि करती थीं। ग्राहक भौंरों की तरह उसके गिर्द मंडराते पर मूल्य सुनकर उदास हो चल देते । कौशाम्बी का विख्यात सेठ धन्ना भी अपनी दूसरी पत्नी मूला के लिये एक सहचरी दासी की खोज में था। उसने इस कन्या को देखा और क्रय कर लिया। धन्ना एक अधेड़ सौम्य नागरिक है। उसे दूसरी पत्नी से भी सन्तान नहीं है। वह कन्या से कहता है"भद्रे ! तू कुलीन वंशजा प्रतीत होती है, अपनी विपत्ति कह ।" दासी--"स्वामी ! मैं दासी हूँ । कुल नष्ट हो गया। शील की रक्षा करें।" धन्ना-"भद्रे ! मैं संतान सुख से वंचित हूँ। तू मेरी पोषिता होगी। मेरी पत्नी को संतान-सुख दे।" दासी-"पितृव्य, आपकी आज्ञा शिरोधार्य ।" इस प्रकार सेठ उस कन्या को अपनी पोषिता पुत्री बनाकर घर ले आया, परन्तु सेठानी मूला उसे सौत ही समझी और एक दिन सेठ की अनुपस्थिति में उसने उसे सिर मुड़ाकर, बेड़ी-हथकड़ी पहनाकर, दहलीज में बन्द कर दिया। तीन दिन के निराहार के बाद एक सूप में उड़द के कच्चे बाकले उसे खाने को दिये। संयोग से उसी समय एक तपस्वी, जो छ: माह से निराहार विचर रहा था, धन्ना के घर के सामने से निकला और उसने कन्या की यह करुण दशा देखी। कन्या ने उड़द के कच्चे बाकले ही साधु की ओर बढ़ा दिये और उस करुणा के अवतार ने उन्हें प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण कर लिया और कहा "दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । अभितुर पारं गमिए ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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