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________________ * भगवान महावीर का दर्शन और धर्म * -सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री बारह वर्षों की कठोर साधना के पश्चात जब भगवान महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और राजग्रही नगरी के बाहर विपुलाचल पर उनकी प्रथम धर्मदेशना हुई तो उनके मुख से प्रथम वाक्य निसृत हुआ उप्पन्नेय वा धवेइ वा विगमेई वा अर्थात् वस्तु उत्पन्न होती है, ध्रुव रहती है, और नष्ट होती है। ये तीनों क्रियाएं एक ही समय में प्रत्येक वस्तु में सदा हुआ करती हैं। महावीर के दर्शन में सत् का लक्षण ही उत्पाद व्यय और ध्रौव्य है। जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त है वही सत् है। आचार्य कुन्दकुन्द और उनके अनुयायी आचार्य उमास्वाती ने सत का यही लक्षण किया है और भगवान महावीर के अनुयायी सभी उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने उसे स्वीकार किया है। इस एक ही वाक्य में भगवान का दर्शन और धर्म दोनों समाविष्ट हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में उक्त तत्व का समर्थन करते हुए कहा है-विनाश के बिना उत्पाद नहीं और उत्पाद के बिना विनाश नहीं। तथा उत्पाद और विनाश ध्रौव्य के बिना नहीं होते। अतः जो उत्पाद है वही विनाश है। जो विनाश है वही उत्पाद है। तथा जो उत्पाद विनाश हैं वही स्थिति या ध्रौव्य है और जो स्थिति है वही उत्पाद विनाश है। इसका स्पष्टीकरण दृष्टान्त द्वारा इस प्रकार है-जो घट की उत्पत्ति है वही मिट्टी के पिण्ड का विनाश है। क्योंकि भाव (घट) अन्य भाव के अभाव (मिट्टी के पिण्ड से विनाश) स्वरूप से प्रतिभासित होता है, तथा जो मिट्टी के पिण्ड का विनाश है वही घट का उत्पाद है क्योंकि अभाव (मिट्टी के पिण्ड का विनाश) का अन्य भाव के भाव (घट की उत्पत्ति) स्वरूप से अवभासन होता है। और जो घट का उत्पाद तथा मिट्टी के पिण्ड का विनाश है वही मिट्टी की स्थित है। क्योंकि व्यतिरेक रूप से अन्वय का प्रकाशन होता है तथा जो मिट्टी की स्थिति है वही घट और मिट्टी के पिण्ड का उत्पाद विनाश है क्यों व्यतिरेक अन्वय का अतिक्रमण नहीं करता । यदि ऐसा नहीं माना जाता तब उत्पाद, विनाश और स्थिति भिन्न-भिन्न ठहरती हैं। और ऐसा होने पर जो केवल घट को उत्पन्न करना चाहता है वह घट को उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि घट के उत्पाद का कारण है मिट्टी के पिण्ड का विनाश, उसका अभाव । यदि उसके बिना भी घट उत्पन्न होता है तो असत् का उत्पाद हुआ कहा जायेगा। और इस प्रकार या तो घट की तरह सभी पदार्थों का उत्पाद नहीं हो सकेगा, या असत् की उत्पत्ति मानने पर आकाश के फूल जैसे असंभव पदार्थों का भी उत्पाद हो जायगा। तथा केवल विनाश को चाहने पर मिट्टी के पिण्ड का विनाश नहीं होगा क्योंकि विनाश का कोई कारण नहीं है। या फिर सत् का सबंधा विनाश मानना होगा। और मिट्टी में पिण्ड का विनाश न होने पर क्या सभी प्रदार्थों का विनाश नहीं होगा । अथवा सत का उच्छेद मानने पर ज्ञानादि का भी उच्छेद हो जायेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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