SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपना लखि पोखे सो तेरो, विनसि जायगो सरीर ॥२॥ जो० ॥ वे प्रभु दीनदयाल जगतगुरु, जानत हैं पर पीर । भाव सहित ध्यावें भवि 'मानिक', पावें भवदधि तीर ॥३॥ जो० ॥ -मानिकचन्द महावीर वन्दना बन्दू मैं जिन वीर धीर महावीर सुसन्मति । वर्धमान अतिवीर बंदिहों मन-वच-तन कृत ॥ त्रिशला तनुज महेश धीश विद्यापति बन्दूं । बंन्दू नित प्रति कनक रूप तनु पाप निकंदूं ॥१॥ सिद्धारथनृपनंद द्वद दुख दोष मिटावन । दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन । कुण्डलपुर करि जन्म जगविजय आनन्द कारन । वर्ष बहत्तरि आयु पाय सबही दुख टारन ॥२॥ सप्त-हस्त-तनु तुंग भंगकृत जन्म-मरण भय । बाल ब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञान-मय ॥ दे उपदेश उधारि तारि भव सिंधु जीव घन । आप बसे शिव माहिं ताहि बन्दों मन-बच-तन ॥३॥ जाके बंदन थकी दोष दुख दूरिहिं जावै । जाके बंदन थकी मुक्तितिय सन्मुख आवै ॥ जाके वंदन थकी वंद्य होवै सुरगन के। ऐसे बीर जिनेश बंदिहूँ क्रम युग तिनके ॥४॥ -महाचंद पद महावीर स्वामी! अबको तो अर्जी सुन लीजिये। अतिवीर, वीर तुम, सान्मति दीजिये ॥ टेक ॥ त्रिजग ईस जे सन्मुख आये, ते सब एक छिनक में ढाये । ऐसो वीर काम भट ताको, तुम सन्मुख बल छीजिये ॥महावीर०॥१॥ परिग्रह छाँडि बसे बन माहीं, निज रुच, बाहर की सुधि नाहीं।। सिद्ध कियो आतमबल तपत, चारकरम रिपु खीजिये ॥महावीर०॥२॥ ___ जब तुम केवल ज्ञान उपायो, देश देश उपदेश सुनायो। कियो कल्याण सबही जीवन को, हमहूँ · सुख दीजिये ॥महावीर०॥३॥ VE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy