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श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूर्जे धर प्रीत । 'वं दावन' सों चतुर नर, लहैं मुक्ति नवनीत ॥
-वृन्दावनदास
पद
जय श्री वीर जिनेद्रचन्द्र, शत-इन्द्र वंद्य जगतारं ॥ टेक ॥ सिद्धारथ-कुल-कमल अमल-रवि, भव-भूधर पविभारं ॥ गुनमनि कोष अदोष मोषपति, विपिन कषाय तुषारं ॥१॥ मदन-कदन शिव-सदन पद नमित, नित अनमित यतिसारं ॥ रमा-अनन्त-कन्त अन्तक कृत-अंत, जन्तु हितकार ॥२॥ फन्द चन्दना-कन्दन, दादुर-दुरित तुरित निर्वारं ॥ रुद्र रचित अति रुद्र उपद्रव, पवन अद्रिपति सारं ॥३॥ अन्तातीत अचिन्त्य सुगुन तुम, कहत लहत को पारं ॥ हे जग मौल "दौल" तेरे क्रम, नमै सीस कर धारं ॥४॥
-दौलतराम
पद
दरशन के देखत भूख टरी ॥ टेक ॥ समोसरन महावीर विराज, तीन छत्र शिर उपर छाजै । भामंडल से रवि शशि लाजै, चंवर ढरत जैसे मेघझरी ॥दरशन०॥१॥ सुरनर मुनि जन बैठे सारे, द्वादश सभा सुगणधर ग्यारे । सुनत धरम भये हरष अपारे, बानी प्रभुजी थारी प्रीतिभरी ॥दरशन०॥२॥ मुनिवर धरम और गृह वासी, दोनों रीति जिनेश प्रकाशी। सुनत कटी ममता की फाँसी, तृष्णाडायन आप मरी ॥दरशन०॥३॥ तुम दाता तुम ब्रह्म महेशा, तुमही धनंतर वैद्य जिनेशा । काटो 'नयनानन्द' कलेशा. तुम ईश्वर तुम राम हरी ॥दरशन०॥४॥
-नयनानंद
पद (राग होरी) ___जो सुख चाहो निराकुल, क्यों न भजो. जिनवीर ॥ टेक ॥ • आयु घटै छिन ही छिन तेरी. ज्यों अंजुलि को नीर ॥१॥ जो० ॥ E मात तातसुत नारि सुजन कोई, भीर परे नहीं सीर।
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