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________________ २८ ] "fकपाक का फल जैसे केवल देखने में सुग्दर मालूम पड़ता है, लेकिन उसका परिणाम सुखद नहीं होता, उसी प्रकार भोग केवल मनोहर मालूम पड़ते हैं लेकिन उनका परिणाम सुन्दर नहीं होता है।' नहा किपाग फलाण, परिणामो न सुन्दरो। एवं भुत्ताण मोगाणं परिणामो न सुन्दरो। यह मनोहर फल जिस प्रकार जीवन ही हर लेता है, उसी प्रकार सुख-भोग अन्ततः मृत्यु के मुख में ही पहुँचा देता है। भोग रोग उत्पन्न करता है और मृत्यु का कारण बन जाता है। अतएव ऐसा सुख कभी भी सुखद नहीं है। सुख और दुख वास्तव में एक ही हैं। वे एक ही सिक्के के दो पहल या एक ही रेखा के दो छोर के समान हैं । सुख बिना दु:ख के नहीं हो सकता और दुःख भी बिना सुख के नहीं हो सकता। हमारा अज्ञान यह है कि हम सुख को तो पसंद करते हैं, लेकिन दुखों से बचना चाहते हैं। जबकि वस्तु-स्थिति यह है कि एक को पसंद करने से दूसरे का वरण भी करना ही होता है। यह प्रकृति की व्यवस्था में ही निहित है। इसका सम्यक ज्ञान नहीं रहने के कारण ही हम मोह और प्रमाद में पड़ते हैं। जो प्रकृति की इस निर्धारित व्यवस्था को स्वीकार कर लेते हैं. वे सुख-दुख में समत्व भाव को उपलब्ध होते हैं। मानव स्वभाव यह है कि अहंकार के कारण वह सुख की वाहवाही तो स्वयं लेना चाहता है, लेकिन दुखों के लिए वह परिस्थिति और ईश्वर को दोषी ठहराता है । परन्तु भगवान महावीर के अनुसार यह मिथ्यादृष्टि है। वास्तव में हम स्वयं अपने सुख-दुख के कर्ता हैं (अप्पा कत्ता विकत्ता यः दुक्खाण य सुहाणय), अतएव कर्मों का पूर्ण उत्तरदायित्व हमारे ऊपर है। यदि सुख हमारे कर्मों का फल है, तो दुख भी हमारे कर्मों का फल है। ऐसा मानकर जो न सुख को पकड़ता है न दुख को वह सुख और दुख दोनों के अतीत चला जाता है। वह शान्ति में प्रतिष्ठित हो जाता है। भगवान महावीर के अनुसार व्यक्ति को उसी प्रकार निलिप्त रहना चाहिए जैसे कमल। कमल जल में जन्मता है. फिर भी उसमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सुख-दुख आदि द्वन्द्वों में व्यक्ति जब निलिप्त बना रहता है, तभी वह मोक्ष को उपलब्ध होता है। साथ ही साथ भगवान महावीर ने यह भी कहा है कि शरद ऋतु का कमल स्वच्छ जल से भी लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार व्यक्ति को सुख और शुभ के प्रति भी लिप्त नहीं होना चाहिए । ऐसा करने से ही मनुष्य द्वन्द्वातीत हो सकता है। जहा पोम्म जले जायं, नोव लिप्पह बारिणा । एवं अलिप्तं कामेहि तं वयं वम माहणं ।। वाच्छिन्द सिणहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्व सिह वन्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए॥ गुणभद्राचार्य ने इसे संक्षेप में इस प्रकार उपस्थित किया है-'मानव को इस जन्म में पूर्व जन्म में किए हए कर्मों का फल सुख और दु:ख रूप में मिलता है, जो मनुष्य इस तथ्य को सवीकार कर सुख और दुःख दोनों को तटस्थ भाव से ग्रहण करता है, उसके पुराने कर्म तो नष्ट हो जाते हैं (निर्जरा) और नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है (संवर), फलतः उसकी आत्मा अत्यन्त निर्मल मणि के समान जगमगा उठती है। सुखं दुखं वा स्यादिह विहित कर्मोदय वशात । कुतः प्रीतिस्तापः कुतः इति बिकल्पादयदि भवेत् ॥ उदासीनस्तस्य प्रगलति, पुराणं न हि नवं । समास्कन्वत्येष स्फुरति, सुविदग्धो मणिरिवा॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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