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________________ * भगवान महावीर कादुःख-बोध * - डा० हरेन्द्र प्रसाद वर्मा मानव जीवन की सबसे बड़ी समस्या दुःख की है । भ० महावीर को जिसने आत्मानुसमस्या संधान की ओर प्रेरित किया वह उनका गहरा दुख बोघ है। उन्होंने गहराई से अनुभव किया कि यह जीवन दुखमय है--यह जीवन बन्धन का जीवन है, यह जीवन जरा और मरण से अभिशप्त है। भगवान महावीर ने कहा- 'जन्म दुःख है, बुढ़ापा दु:ख है, रोग दु:ख है, बार-बार संसार में आना और मृत्यु को प्राप्त होना दुःख है । अहो ! सारा संसार ही दु:खरूप है। यहाँ प्राणी सदा दुःख भोगते रहते हैं।" - Jain Education International जम्मं दुबलं, जरा दुक्खंरोगाणि मरणानिय । अहो दुक्खो हु संसारो, जस्थं कीसन्ति जंतवो ॥ सब कुछ क्षणिक है, सब कुछ अनित्य है । रूप और जीवन दोनों चपला की चमक के समान क्षण भंगुर हैं ( जीवितं चैव रूपं च विज्नु संपायचंचलं) । मानव देह असार है, व्याधि मंदिर है, जरा मरण से ग्रस्त है । अतएव इसमें क्षणमात्र भी रमण करना, इसका मोह करना निरर्थक है । हमारी वर्तमान दशा उस नाविक की भाँति है जिसकी नाव मंझधार में टूट गयी हो, जिसे तैरना भी नहीं आता हो और वह बचाव के लिये बार-बार हाथ पैर मार रहा हो। जिस प्रकार डूबता मनुष्य तिनके को भी सहारा मान लेता है, उसी प्रकार दुःख- संतप्त व्यक्ति इन्द्रिय सुख को ही सहारा और शरण मान बैठता है । परन्तु यह उसकी भूल है । इन्द्रिय तृप्ति कभी भी श्रेयस्कर नहीं है और न तो सुख ही कभी भी आनन्दकर है । सुख चिन्ता उपजाता और अन्ततः दुःख में बदल जाता है । सुख और दु:ख के बीच विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। सुख अप्राप्त दुःख है और दु:ख प्राप्त सुख । भगवान महावीर ने कहा है- 'काम भोग क्षणमात्र सुख और चिरकाल तक दुःख देने वाले हैं। उनमें सुख की मात्रा कम और दुःख की मात्रा ही अधिक है ( खण मेत्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा, पगाम दुक्खा अणिगाम सोक्खा)। जिसे सुख कहते हैं वह वास्तव में दुःख की पूर्वपीठिका है-दुखों को भुलाने का प्रयत्न है। मनुष्य अपने अंतर के हाहाकार को वीणा के गुंजार में छिपाना चाहता है । हँसी रुदन की भूमिका मात्र है। भगवान महावीर ने अनुभव किया कि - 'संगीत विलाप रूप है, नाट्य विडम्बना रूप है, आभरण भार रूप है और सभी कामनाएं दुःख रूप हैं ।" सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नटं विडंबयं । सव्वे आभरणा मारा, सब्वे कामा दुहावहा ॥ कामनाओं के पीछे भागना मृग मरीचिका के पीछे भागने के समान है । इसमें तृप्ति की कोई सम्भावना नहीं है । तृष्णा दुष्पूर है । भोग की आग कभी नहीं बुझती, वह आग में घृत दिये जाने के समान प्रतिक्षण बढ़ती ही जाती है । भोग अन्ततोगत्वा भोक्ता को ही समाप्त कर देता है । इसलिये भोग जीवन का निःश्रेयस् नहीं हो सकता | भगवान महावीर ने कहा है- " तृष्णाएं शल्य रूप हैं, विषमय हैं, भयंकर विषधर के समान हैं । जो कामनाओं के पीछे भागते हैं उनकी कामनाएं कभी भी तृप्त नहीं होतीं । वे केवल दुर्गति के शिकार होते हैं ।" सल्ल कामा विस कामा, कामा आसी विसोवमा । कामे य पत्थे माणा, अकामा जन्ति दोग्गई ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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